दीपावली में लक्ष्मी के साथ गणेश की पूजा क्यो ?

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जीवन मे कभी कभी आप उत्तर के होते हुए भी अनुत्तरित हो जाते हैं। आज मेरे साथ ऐसा ही हुआ। वजह थी पार्थ का यक्ष प्रश्न। पार्थ ने पूछ लिया कि दीपावली पर लक्ष्मी के साथ गणेश की पूजा क्यो होती है? लक्ष्मी गणेश पति पत्नी भी नही है। फिर एक साथ उनकी पूजा क्यो होती है? लक्ष्मी और नारायण की पूजा क्यो नही होती? मैं भी सकते में आ गया।
एकदम से जबाब नही दे पाया, सिवाय इसके की गणेश प्रथम पूज्य हैं किसी भी पूजा से पहले उनकी पूजा होती है। वे हमारे ही नही देवी देवताओं के भी प्रथम पूज्य है। विघ्नविनाशक हैं। पर पार्थ का प्रश्न कुछ और ही था। मैं आस्था के आधार पर उसका उत्तर दे सकता था पर पार्थ तर्क की सतह पर थे।
पार्थ मेरे पुत्र हैं। पॉच साल से इंग्लैण्ड में पढ़ते है। संस्कार बने हुए है। कल उन्होंने कार्डिफ के अपने अपार्टमेंट में धनतेरस की पूजा की। खुद से पॉव भाजी बना कर भोग लगाया। हॉलाकी कुछ मामलो में वे बनारसी पंडित है। उनका पंसदीदा भोजन पूड़ी सब्जी ही है।शायद कल उसका इन्तज़ाम नही हो पाया होगा। पार्थ ने अपनी पूजा की फ़ोटो भेजी। मैंने देखा इसमें लक्ष्मी तो है ही नही। मैंने जब पूछा लक्ष्मी क्यो नही। तो उन्होंने यह प्रतिप्रश्न किया। और यह बताया की लक्ष्मी की मूर्ति हमारे पास नही है। पॉंच साल पहले जब मैं विलायत आ रहा था तब मम्मी ने केवल गणेश ही दिए थे। हालॉंकि मैंने पूजा में उन्हे इमेजिन कर लिया था।
सत्रह साल की उम्र में पार्थ विलायत पढ़ने चले गए। जाते वक़्त उनकी माता ने एक गणेश की चॉदी की प्रतिमा उन्हे दी थी ताकि पूजा पाठ के संस्कार बने रहे और बालक भटक न जाय। इन पॉंच सालो में पार्थ ने यूरोप अमेरिका हर जगह गणेश जी को अपने साथ घुमाया। इसलिए उनका नाम भी रखा ‘वेल ट्रैवेल्ड गणेश ‘ सुना है इस नाम से उन गणेश जी का एक ट्विटर हैंडल भी है। बात भटक गयी। मैंने पार्थ को बताया की इस पर कोई पौराणिक स्थापित तथ्य नहीं है कि गणेश-लक्ष्मी की पूजा एक साथ क्यों होती है। गणेश को लक्ष्मी का मानस-पुत्र ज़रूर बताया गया है।
याज्ञवल्क्य स्मृति के लक्ष्मी भाष्य में गणेश पूजन का उल्लेख है… श्रीतत्त्वचिन्तामणि में भी लक्ष्मी विनायक मन्त्र में गणेश पूजा का उल्लेख है। पर दिवाली के दिन ही क्यों गणेश-लक्ष्मी की पूजा एकसाथ क्यो की जाती है, यह तथ्य पुराणों और उपनिषदों में कही नहीं मिलता। लक्ष्मी गणेश पूजा के पीछे एक किवदंती जरूर है जो हर जगह मिलती है। रॉबर्ट ब्राउन ने Ganesh- Studies of an Asian God अपनी किताब में भी इसे किवदंती ही माना है।
दीपावली
पार्थ के प्रश्न की गहराई मुझे अध्ययन के मार्ग की ओर खींचे लिए जा रही थी। यह तो सभी जानते हैं कि लक्ष्मी विष्णु की प्राण वल्लभा या ्प्रियतमा हैं। यदि धन की देवी को प्रसन्न करना है तो उनके पति विष्णु की आराधना उनके साथ ज़रूरी है।शास्त्रों में यह मान्यता है कि लक्ष्मी जी विष्णु का साथ कभी नहीं छोड़तीं। वेदों के अनुसार भी विष्णु के प्रत्येक अवतार में लक्ष्मी को ही उनकी पत्नी का स्थान मिला है। जहां विष्णु हैं वहीं उनकी पत्नी लक्ष्मी भी हैं। लेकिन फिर दीपावली में विष्णु गायब रहते हैं लक्ष्मी की पूजा गणेश के साथ की जाती है.
रिश्ते में गणेश लक्ष्मी के पुत्रवत है। लेकिन गणपति बप्पा तो माता पार्वती और भोलनाथ के पुत्र हैं ।फिर यह कैसे ? लेकिन यह बहुत कम लोग जानते होंगे कि गणेश जी मां लक्ष्मी के दत्तक पुत्र हैं। पौराणिक कथा के अनुसार, एक बार लक्ष्मी को खुद पर बहुत अभिमान हो गया था। इस अभिमान की वजह थी कि हर कोई उन्हें पाने के लिए लालायित था और सारा जगत उनकी पूजा करता था। इससे उन्हें स्वयं पर अभिमान हो गया था। उनके अभिमान को विष्णु ने भांप लिया था। ऐसे में श्री हरि ने लक्ष्मी का घमण्ड व अहंकार ध्वस्त करने का विचार किया।उन्होने कहा कि भले ही सारा संसार मां लक्ष्मी की पूजा करता है और सभी उन्हें पाने के लिए व्याकुल रहते है। पर उनमे एक बहुत बडी कमी है। उन्हे समग्रता प्राप्त नही है। वो अभी तक अपूर्ण हैं। यह सुन लक्ष्मी ने अपनी कमी जाननी चाही। तब विष्णु ने उनसे कहा कि जब तक कोई स्त्री मां नहीं बनती है तब तब वह पूर्ण नहीं है। ऐसे में वो अपूर्ण हैं।
इस जानकारी से लक्ष्मी व्याकुल हो सदमे में पहुँच गयी। फिर उन्होंने अपनी सखी पार्वती से बात की। उन्होंने कहा कि नि:संतान होना बेहद परेशान कर रहा है। उन्होंने पार्वती से कहा कि उनके दो पुत्रों में से गणेश को उन्हें गोद दे दें। माता पार्वती ने उनका दुख दूर करने के लिए यह बात मान ली। तभी से गणेश लक्ष्मी के दत्तक-पुत्र माने जाने लगे।पुत्र पाने की खुशी में लक्ष्मी ने गणेश जी को यह वरदान दिया कि जो भी उनकी पूजा करेगा लेकिन गणेश की पूजा नहीं करेगा तो मैं उसके पास नहीं रहूंगी।इसी वजह से लक्ष्मी के साथ हमेशा उनके दत्तक पुत्र गणेश जी की पूजा की जाती है।पूजा में भी उनकी जगह गणेश के दाहिने बैठाया जाता है क्योंकि पत्नी का स्थान बांयी ओर होता है। वह वामांगी होती है।
दीपावली में दोनो पूजे जाते हैं। दीपावली जीवन के गहन अंधकार के बीच रोशनी का उत्सव है। वर्ष की सबसे अंधेरी रात में आती है दीपावली। दीपावली का एक नन्हा दीया अंधकार के समूचे सागर को पीने की चुनौती स्वीकार करता है। इस दीये की लौ में एक उम्मीद नाचती है। उम्मीद इस बात की कि अगला वर्ष उजियारे से भरा-पूरा होगा। इस नन्हे दीये का साहस ही हमारी परंपराओं में घुली हुई उत्सवधर्मिता का ही संदेश है।
इस दीये की सबसे खासियत यह है कि इसका आलोक अपने लिए नहीं, बल्कि दूसरों के लिए होता है। अपने लिए तो केवल जलना होता है। यही दीये का दर्शन है। उसके प्रकाश की कोई सीमा नहीं होती। वह जहां तक पहुंचता है, आलोक बिखेरता है। प्रकाशित करता है।
दीपावली का अर्थ ही है, आलोक का विस्तार। एक नन्हा-सा दीप असंख्य दीपों को दीप शिखा दे कर प्रकाश की अनंत शृंखला स्थापित करता है। प्रकाश ज्ञान का प्रतीक है। शिक्षा का प्रतीक है। दीपावली प्रतीक है शस्य-श्यामल संपन्नता का। दान के, देय के उत्साह का। दूर-दूर से आनेवाले पक्षियों के चहचहाने का। दीपावली आह्वान है नए वर्ष का। नव हर्ष का। स्वयं को खाली कर, नए सिरे से भरने का। वैदिक शब्दों में परिभाषित करें तो स्वयं के अतिरेचन का।
अंधेरा हमेशा से मनुष्यता का शत्रु रहा है। अंधकार डराता है। अस्तित्व को नष्ट करता है, इसीलिए मनुष्य अपने अस्तित्व की सुरक्षा के लिए सदैव से प्रकाश का मुखापेक्षी रहा है। विधाता ने प्रकृति में प्रकाश और अंधकार का अद्भुत संतुलन स्थापित किया है। दिन अगर प्रकाश की यात्रा है तो रात अंधेरे का विस्तार। अंधकार एक आवरण है। एक भय है। आशंका है, दुस्स्वप्न है। इसीलिए उसमें जड़ता है, अकर्मण्यता है, एकरसता है, निद्रा है। अस्तित्व का विलय है। इसलिए अंधेरा त्याज्य है। जबकि प्रकाश में चेतना है, विविधता है, सक्रियता है, कर्मठता है और अस्तित्व की सुरक्षा है। इसी कारण आलोक वरेण्य है।
दीपावली
अंधकार के सागर में प्रकाश बिखेरने की लालसा ने ही मानव सभ्यता के इतिहास में प्रगति के अनेक पगचिह्न छोड़े हैं। पत्थरों को रगड़कर चिनगारी पैदा करने से लेकर आज के लेजर लाइट दौर तक मनुष्य ने सदैव ज्योतिर्मुखी यात्रा ही की है। अपनी इसी प्रकाश-यात्रा के जरिए हम अतीत से प्रेरणा पाते हैं और भविष्य की आशा साधे रहते हैं। हमें समाज और जीवन को नियमित करने के लिए जिन गुणों और तत्त्वों की जरूरत होती है, उत्सवों के जरिए हम उसे भी पाते हैं। हमने अपने देवताओं और महापुरुषों को भी उन्हीं गुणों का प्रतीक बना लिया है। शिव अभय के प्रतीक हैं तो राम मर्यादा के। कृष्ण प्रेम के तो बुद्ध करुणा के और महावीर तप के। त्योहारों के जरिए हम इन्हीं गुणों की रक्षा करते हैं। इसी सत्त्व को साधते हैं। हमारे चित्त की समृद्धि का इससे बड़ा प्रमाण क्या होगा कि हमारे सभी त्योहार आनंद के त्योहार हैं। उत्सव के पारावार हैं।
हमारे सभी त्योहारों की शुरुआत ऋतु उत्सव के रूप में हुई। शीत आनंद की ऋतु है। स्वच्छता की ऋतु है। संधि ऋतु है। आर्य एवं आर्येतर जातियां सामूहिक शरदोत्सव मनाती थीं। रातभर अग्नि शिखाओं के प्रकाश में नृत्य-गीत की कलाएं थिरकती थीं। आज भी बुंदेलखंड में दीपावली पर सामूहिक ‘कहरवा’ गाया जाता है। बाद में यही ऋतु उत्सव कृषि उत्सव में बदल गया, क्योंकि कृषि के विकास के साथ-साथ ग्रामीण स्वतंत्रता भी विकसित हुई। फसल पकी। धान, कोदों, सामा, ज्वार, मक्का और बाजरा की फसलें कटकर घर आईं। किसानों के त्योहार मनाने का क्षण आया। इसमें सबसे अधिक प्रमुखता मिली धान को, क्योंकि यह आदिम अन्न है। हमारे यहां सारे पूजा विधान में चावल का प्रयोग होता है। कहीं आटेया गेहूं का प्रयोग नहीं है, इसीलिए धान की खील बनी।
दीपावली सिर्फ आलोक-उत्सव ही नहीं, अन्नोत्सव भी है। अन्न ब्रह्म है। आदि युग में मनुष्य भी पशु की भांति कच्चा अन्न खाता था। अग्नि से परिचय हुआ तो पाक-शास्त्र वजूद में आया, अर्थात् मानव ने भूनकर खाना सीखा। दीपावली की रात में गणेश-लक्ष्मी की ‘खील’ बिखेरकर पूजा की गई। अंधकार में प्रकाश बिखेरने का काम नन्हे दीपकों ने संभाला और भूख के अंधकार से निपटने का काम नन्ही-नन्ही खीलों ने। खील अपने आप में प्रकाश की प्रतीक हैं। काली-कलूटी धान की वर्णराशि अग्नि के संपर्क में आकर उसके ताप से खिल जाती है। श्वेत-शुभ्र खील। परवर्ती युग में खील के साथ बताशा भी जुड़ गया। यह किसी बालक की मधुर सूझ रही होगी या संभव है, किसी ब्राह्मण की माधुर्य लिप्सा का नतीजा हो। कहा भी गया है—‘ब्राह्मण मधुरं प्रियम्।’
दीपावली
इसी रोज भगवान् राम वनवास के बाद वापस अयोध्या लौटे थे। उनके लौटने की खुशी में अयोध्यावासियों ने जो उत्सव मनाया, वह दीपावली के तौर पर प्रसिद्ध हुआ। यह कथा सही भी हो सकती है, सत्यांश भी, क्योंकि दीपावली पर भगवान् राम की कोई पूजा नहीं होती। पूजा होती है लक्ष्मी की। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के शब्दों में—“दीपावली आकर कह जाती है कि अंधकार से जूझने का संकल्प ही यथार्थ है। उससे जूझना ही मनुष्य का मनुष्यत्व है। जूझने का संकल्प ही महादेवता है। उसी को प्रत्यक्ष करने की क्रिया को लक्ष्मी-पूजा कहते हैं।”
मार्कंडेय पुराण के अनुसार समस्त सृष्टि की मूलभूत आद्यशक्ति महालक्ष्मी है। वह सत्, रज और तम तीनों ही गुणों का मूल हैं। वही आद्यशक्ति हैं। वे समस्त विश्व में व्याप्त हैं। वे लक्ष्य और अलक्ष्य, इन दोनों ही रूपों में रहती हैं। लक्ष्य रूप में यह चराचर जगत् ही उनका स्वरूप है और अलक्ष्य रूप में वे समस्त जगत् की सृष्टि का मूल कारण हैं। इसी बात को और भी स्पष्ट करते हुए वैदिक ऋषि ने कहा था कि जो अग्नि में है, जल में है, वायु में है, औषधियों में है, वनस्पतियों में है, उसी महादेव को मैं प्रणाम करता हूँ!
आज हमारे जीवन में बाजार की दखल बढ़ी है। बाजार एक यथार्थ है तो एक स्वप्नलोक भी। आपके पास जो नहीं होता है, वही आप चाहते हैं। बाजार आपको ललचाता है। बाजार का संतुलित उपयोग हमें पुष्ट भी बनाता है, मगर बाजार को अपने ऊपर हावी मत होने दीजिए। बाजार का उचित उपयोग कीजिए। बाजार की आराधना मत कीजिए। इससे दीपावली अर्थहीन हो जाएगी! हमारा हर त्योहार संसार में रहते हुए, उसके उतार-चढ़ाव को सहते हुए, आनंद और पुरुषार्थ के भाव को साकार करने का जरिया है। पुरु के प्रश्न का निहितार्थ समझते हुए मैंने दीपावली के अर्थ भी
तलाश डाले। अर्थों से भरी हुई दीपावली और भी जगमग लगती है।
दीपावली की अनेक मंगलकामनाएँ

[bs-quote quote=”यह लेखक के निजी विचार हैं। यह लेख वरिष्ठ पत्रकार,साहित्यकार हेमंत शर्मा की फ़ेसबुक वॉल से लिया गया है। ” style=”default” align=”center” author_name=”हेमंत शर्मा” author_job=”वरिष्ठ पत्रकार,साहित्यकार” author_avatar=”https://journalistcafe.com/wp-content/uploads/2020/05/hemant.jpg” author_link=”https://www.facebook.com/hemant.sharma.75286/posts/2879194655514822″][/bs-quote]

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