यहां पीढ़ियों से किया जा रहा है चरखे से सूत कातने का काम

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समय के साथ चरखे का स्वरूप बदलता गया, भावनाएं नहीं। खादी महज वस्त्र नहीं विचार भी है। इसमें देशभक्ति का भाव निहित है। बिहार के मुजफ्फरपुर स्थित किशुननगर गांव में बानगी देखी जा सकती है। चरखे के बूते गांधी जी का ग्राम स्वराज यहां अस्तित्व में है। गांव के 40 परिवार स्वतंत्रता आंदोलन के दौर से चरखे को अपनाए हुए हैं। गांधी जी के आह्वान पर चरखे को अपनाया था।

जबकि कई परिवारों ने चरखे को त्याग दिया है

तब से यही उनकी जीविका का आधार है। बड़ी बात यह कि चरखा चलाने की जिम्मेदारी इन परिवारों की महिलाओं ने संभाल रखी है। वे पीढ़ी-दर-पीढ़ी चरखा चलाती आ रही हैं। सूत कातने का काम इन परिवारों की पहचान बन चुका है, जो निरंतर स्वावलंबन की राह पर आगे बढ़ रहे हैं। बावजूद इसके कि मेहनत अधिक और आमदनी कम थी, लेकिन इन परिवारों ने चरखे का त्याग नहीं किया।

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हर हाल, हर परिस्थिति में चरखा मानो एक विरासत की तरह एक पीढ़ी से दूसरी को हस्तांतरित होता गया।1ग्राम निवासी अरविंद पांडेय की पत्नी पूनम देवी भी इनमें से एक हैं। कहती हैं, 30 साल पहले इस घर में बहू बनकर आई। मायके में चरखा नहीं देखा था। सास उर्मिला देवी ने इससे परिचय कराया। चरखे के प्रति सास व ससुराल वालों का अनुराग देख अभिभूत हो गई।

अधिकांश महिलाओं ने ससुराल में सीखा चरखा चलाना

सास के लिए चरखा किसी भगवान से कम नहीं था। वे सुबह स्नान के बाद चरखा साफ कर सूत कातने बैठती थीं। उनके पास बैठते-बैठते कब चरखा चलाना सीख लिया, पता ही नहीं चला। यहां चरखा चलाने वाली अधिकांश महिलाओं ने ससुराल में आकर सीखा। कहती हैं, जिस दिन चरखा नहीं चलाती, उस दिन सूना-सूना लगता है। हर सुबह चरखा शुरू होता है और रात में नौ बजे रुकता है। परिवार के सदस्यों के बीच इसे लेकर शिफ्ट बंटी रहती है। पुरुष सदस्य भी इसमें मदद करते हैं।

पुराने चरखे से प्रतिदिन सात-आठ घंटे की कड़ी मेहनत के बाद महिलाएं (एक कत्तिन) 50 से 60 रुपये का ही सूत कात पाती थीं। बिहार राज्य खादी ग्रामोद्योग संघ ने न्यू मॉडल चरखा 15 कत्तिनों को उपलब्ध कराया है। यह आठ तकुए वाला है। इससे एक दिन में पुराने वाले से दोगुना 600 ग्राम सूत काता जा सकता है। एक कत्तिन को लगभग 175 रुपये आय होती है। खादी के प्रचार व कत्तिनों की सहायता के लिए कौशल्या खादी ग्राम उत्थान समिति काम कर रही है।

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