वो घटनाएं जिनसे मायावती की बदल गई जिंदगी..!

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बसपा सुप्रीमो मायावती आज किसी परिचय की मोहताज नहीं हैं। उनके फर्श से लेकर अर्श तक पहुंचने की कहानी बहुत ही दिलचस्प और संघर्षों से भरी हुई है।

मायावती की इसी संघर्ष और सफलता की कहानी से जुड़ी ऐसी पांच घटनाएं हैं जिससे मायावती की जिंदगी बदल गयी है। आज मायावती का जीवन भले ही महलों की रानी जैसा लगता हो लेकिन एक वक्त था जब वह झुग्गी में रहती थीं। 15 जनवरी, 1956 को नई दिल्ली के लेडी हार्डिंग अस्पताल में पैदा हुईं थीं। दिल्ली के ही इंद्रपुरी की झुग्गियों में रहने वाले प्रभु दास दयाल और रामरती देवी के परिवार में पैदा हुई मायावती ने जो हासिल किया है, वह निश्चित तौर पर एक मिसाल है।

कांस्टिट्यूशन क्लब का भाषण

मायावती पहली बार बड़े नेताओं या यूं कहें कि बसपा के संस्थापक कांशीराम की नजर में कांस्टिट्यूशन क्लब में आयोजित एक कार्यक्रम में अपने एक भाषण के जरिए आईं।साल 1977 के सितंबर महीने में उस वक्त की सत्ताधारी पार्टी जनता पार्टी ने जात-पांत से लड़ने के रास्तों पर एक आयोजन किया। इसमें मुख्य वक्ताओं में पार्टी के बड़े नेता और केंद्रीय मंत्री राजनारायण शामिल थे। राजनारायण  1977 के चुनावों में इंदिरा गांधी को हराकर हीरो बन गए थे। अपने भाषण में उन्होंने दलितों को बार-बार ‘हरिजन’ कहकर संबोधित किया। श्रोताओं में बैठी मायावती को यह बात ठीक नहीं लगी।

जब कार्यक्रम के आखिरी क्षणों में मायावती को बोलने का मौका मिला तो उन्होंने न सिर्फ राजनारायण और उनकी पार्टी बल्कि मुख्यधारा की सभी पार्टियों पर सीधा हमला बोला। उन्होंने कहा कि हरिजन शब्द का इस्तेमाल करके ये सभी लोग दलितों को अपमानित करते हैं। मायावती ने बताया कि बाबा साहेब अंबेडकर ने संविधान में हरिजन शब्द का नहीं बल्कि दलितों के लिए अनुसूचित जाति का इस्तेमाल किया है।

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मायावती के आक्रामक और तर्कपूर्ण भाषण का नतीजा यह हुआ कि जनता पार्टी के कार्यक्रम में ही पार्टी और राजनारायण के खिलाफ नारे लगने लगे। इसी कार्यक्रम के बाद कांशीराम को मायावती के बारे में बताया गया। कांशीराम उन दिनों दलित और पिछड़े कर्मचारियों का बामसेफ नाम का संगठन चलाते थे। कांशीराम को लोगों ने मायावती के बारे में जो बताया उसका असर यह हुआ कि वे रात में ही इंद्रपुरी की झुग्गियों में मायावती से मिलने चले गए। उस वक्त मायावती का परिवार रात का खाना खाकर सोने की तैयारी में था। उस रात कांशीराम के साथ हुई एक घंटे की मुलाकात ने मायावती की जिंदगी की दिशा बदल दी। भारतीय प्रशासनिक सेवा में जाने का मायावती का सपना जिस गति से पीछे छूटता गया, उससे कई गुना अधिक तेजी से मायावती सामाजिक और राजनीतिक जीवन में लगातार आगे बढ़ती गईं। इस घटना से जहां एक तरफ कांशीराम मायावती की प्रतिबद्धता को लेकर निश्चिंत हो गए वहीं मायावती कांशीराम के बेहद नजदीक होती चली गईं।

पिता का घर छोड़ना पड़ा

सामाजिक और राजनीतिक जीवन में अपनी बेटी मायावती की बढ़ती सक्रियता से प्रभु दास नाराज रहते थे। उनके लाख समझाने के बावजूद मायावती प्रशासनिक सेवा की तैयारी में वक्त नहीं दे पा रही थीं। उन्हें लगता था कि कांशीराम ने ही उनकी बेटी को रास्ते से भटका दिया है। प्रभुदयाल सभी समस्याओं की जड़ कांशीराम को मानते थे। उन्हें लगता था कि अगर उनकी बेटी कांशीराम से मिलना बंद कर दे तो वह अपनी पढ़ाई पर ध्यान दे पाएगी। इसलिए उन्होंने मायावती के सामने एक दिन फरमान जारी कर दिया कि अगर उनके घर में रहना है तो कांशीराम से मिलना-जुलना बंद करना होगा। प्रभु दास को लग रहा होगा कि अकेली लड़की भला कहां जाएगी।

लेकिन मायावती ने अपने कुछ कपड़ों और स्कूल शिक्षक की नौकरी से बचाए कुछ पैसों को लेकर अपने पिता का घर छोड़ दिया। यहां से सीधे मायावती बामसेफ के करोलबाग कार्यालय में पहुंचीं। उस वक्त कांशीराम कहीं बाहर थे। जब वे वापस लौटे तो मायावती ने उन्हें अपने निर्णय के बारे में बताया। कांशीराम ने बामसेफ कार्यालय के पास ही खुद के रहने के लिए एक कमरे का किराये का मकान ले रखा था। उन्होंने मायावती को इसमें रहने का प्रस्ताव दिया।

जिसे मायावती ने तुरंत स्वीकार कर लिया। मायावती का अचानक कांशीराम के इतना नजदीक हो जाने से उस वक्त बामसेफ में काम कर रहे कई बड़े नेता असहज भी हुए जिसके चलते कुछ को बाहर का रास्ता भी देखना पड़ा लेकिन मायावती का राजनीतिक विकास लगातार होता रहा और इसके बाद कांशीराम के उतना नजदीक कोई नहीं आ सका जितना मायावती रहीं। अगड़ी जाति के खिलाफ विषवमन करने वाले नारों के जरिए जो जनसंपर्क अभियान कांशीराम और मायावती चला रहे थे, उससे वह वर्ग उनके पीछे गोलबंद होने लगा जिसे साथ लाने के लिए डीएस-4 बनाया गया था।

डीएस-4

डीएस-4 का मतलब है दलित शोषित समाज संघर्ष समिति। इस मंच की घोषणा कांशीराम ने 1981 में की थी। इसका मुख्य नारा था, ठाकुर, ब्राह्मण, बनिया छोड़, बाकी सब हैं डीएस-4। यह एक राजनीतिक मंच नहीं था लेकिन इसके जरिए कांशीराम न सिर्फ दलितों की बल्कि अल्पसंख्यकों के बीच भी एक तरह की गोलबंदी करना चाह रहे थे।

डीएस-4 के तहत कांशीराम ने सघन जनसंपर्क अभियान चलाया जिसमें मायावती ने बढ़-चढ़कर साथ दिया। उन्होंने एक साइकिल मार्च निकाला, जिसने सात राज्यों में तकरीबन 3,000 किलोमीटर की यात्रा की।इसी सामाजिक पूंजी से उत्साहित होकर कांशीराम ने 14 अप्रैल, 1984 को एक राजनीतिक संगठन बहुजन समाज पार्टी की स्थापना की। बसपा ने सियासत में जो भी हासिल किया, उसमें उस मजबूत बुनियाद की सबसे अहम भूमिका रही जिसे डीएस-4 के जरिए रखा गया था। भले ही बसपा की स्थापना को उस वक्त मीडिया ने कोई तवज्जो नहीं दी हो लेकिन उसी वक्त यह साफ हो गया कि इस संगठन के शीर्ष पर कांशीराम और मायावती ही हैं। यह भीड़ बेहद गंदे शब्दों में वह सब जोर-जोर से बोल रही थी जो वह मायावती के साथ आने के बाद उऩके साथ करना चाह रही थी। लेकिन दो पुलिसकर्मियों के साहस की वजह से मायावती बच गईं।

गेस्ट हाउस कांड

1 जून, 1995 को कांशीराम के निर्देश पर मायावती ने उत्तर प्रदेश के राज्यपाल मोती लाल वोरा से मुलाकात कर उन्हें सपा की अगुवाई वाली गठबंधन सरकार से समर्थन वापसी की जानकारी दी और नई सरकार के गठन के लिए दावा भी पेश किया। इसके बाद 2 जून को मायावती ने अपनी पार्टी के विधायकों की बैठक लखनऊ के राज्य अतिथिगृह में बुलाई। बैठक के बाद मायावती अपने कुछ विश्वस्त लोगों के साथ अपने कमरे में आगे की रणनीति पर चर्चा करने चली गईं। बाकी विधायक बाहर कॉमन हॉल में ही रहे। तकरीबन चार बजे अचानक 200 से ज्यादा लोगों की भीड़ ने गेस्ट हाउस पर हमला बोल दिया। बाद में मालूम चला कि इस भीड़ में न सिर्फ सपा कार्यकर्ता शामिल थे बल्कि पार्टी के कई विधायक भी थे। इस भीड़ ने न सिर्फ बसपा नेताओं को जातिसूचक भद्दी गालियां दीं बल्कि उनके साथ मार-पीट भी की। पांच बसपा विधायकों को एक गाड़ी में भरकर मुख्यमंत्री आवास ले जाया गया। वहां उन्हें धमकाया गया और सपा में शामिल होने के लिए उनसे सादे कागज पर दस्तखत लिए गए।

वहीं गेस्ट हाउस में पगलाई भीड़ मायावती के कमरे के बेहद करीब पहुंच गई। दरवाजा तोड़ने की कोशिश करने लगी। मायावती को भद्दी गालियां दी गईं। पूरे पुलिस महकमे की चुप्पी के बावजूद दो पुलिसकर्मियों के साहस की वजह से मायावती बच गईं। बाद में जिलाधिकारी के हस्तक्षेप से भीड़ को गेस्ट हाउस से हटाया जा सका। कांशीराम ने अस्पताल के बिस्तर पर लेटे-लेटे ही एक दिन मायावती से पूछा कि क्या तुम उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनना चाहोगी? मायावती को लगा कि बीमार कांशीराम उनसे मजाक कर रहे हैं।

इस घटना ने मायावती को अंदर तक हिला दिया। असुरक्षा की जिस चादर में आज भी मायावती लिपटी दिखती हैं, जानकार मानते हैं कि उसके लिए अगर सबसे अधिक कोई घटना जिम्मेदार है तो वह है गेस्ट हाउस कांड। इस घटना के बाद से लेकर मायावती अपने कुछ विश्वस्तों के बेहद सीमित दायरे में सिमटी दिखती हैं। वे उतना खुलकर सामने नहीं आतीं, जितना वे इस घटना से पहले आती थीं। इस घटना ने प्रदेश की दो सबसे बड़ी पार्टियों के साथ आने की सभी संभावनाओं को खत्म कर प्रदेश की राजनीति को भी हमेशा के लिए बदलकर रख दिया।

मुख्यमंत्री मायावती

वैसे तो सत्ता का स्वाद मायावती ने उसी दौर में बगैर मंत्री बने चखना शुरू कर दिया था जब उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा की गठबंधन सरकार बनी। इस सरकार में मायावती मंत्री नहीं थीं लेकिन उन्हें कांशीराम ने बसपा की ओर से सरकार के साथ समन्वय की जिम्मेदारी दी थी और खुद को उत्तर प्रदेश की राजनीति से दूर कर लिया था। मतलब यह हुआ कि सरकार जिस पार्टी के समर्थन से चल रही थी, उसकी सबसे ताकतवर नेता के तौर पर मायावती स्थापित हो गईं थीं। इस दौर में वे जो चाहती थीं वो हो जाता था, उनमें से ज्यादातर काम सरकार से करवा लेती थीं। मायावती से समन्वय का काम खुद मुलायम नहीं करते थे बल्कि उनके प्रधान सचिव पीएल पुनिया किया करते थे।

लेकिन मायावती जब 3 जून, 1995 को पहली बार देश के सबसे बड़े सूबे की मुख्यमंत्री बनीं तो यहां से उनकी राजनीति ने एक नया मोड़ लिया। दलितों पर प्रदेश में हो रहे लगातार हमलों से जहां बसपा परेशान थी तो मुलायम के उभार से भाजपा, कांग्रेस और जनता दल भी परेशान थे। सब चाहते थे कि मुलायम की सरकार चली जाए और कांशीराम उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बन जाएं। लेकिन कांशीराम की बीमारी ने यह अवसर मायावती को दे दिया। जिन दलों के सहयोग से वे पहली बार मुख्यमंत्री बनी थीं, उनमें से कुछ तो उत्तर प्रदेश में खत्म हो गए और कुछ बिल्कुल हाशिये पर चले गए।

कांशीराम के बेहद करीब रहे एक पत्रकार के मुताबिक भाजपा का समर्थन हासिल करने की पहल कांशीराम ने ही की थी। कांशीराम के कहने पर ही अटल बिहारी वाजपेयी से इस बारे में बातचीत की गई थी। वाजपेयी इस प्रस्ताव पर तैयार हो गए। अब तक अपनी इस योजना की जानकारी कांशीराम ने मायावती को नहीं दी थी। फिर कांशीराम ने उन्हें दूसरे दलों के समर्थन के पत्र दिखाए और उनसे लखनऊ जाकर उन पत्रों को राज्यपाल को सौंपने को कहा। कांशीराम ने मायावती से यह भी कहा कि राज्यपाल उन्हें मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाएंगे और 15 दिनों में उन्हें विधानसभा में अपना बहुमत साबित करना होगा। जैसा कि ऊपर लिखा जा चुका है मायावती ने राज्यपाल को पत्र देने का काम 1 जून, 1995 को किया और 2 जून को गेस्ट हाउस कांड हो गया। लेकिन यह कांड भी मायावती को 3 जून को मुख्यमंत्री बनने से नहीं रोक पाया। उल्टा गेस्ट हाउस कांड की वजह से उन्हें सपा को छोड़कर सभी दलों का खुला समर्थन मिल गया। हालांकि, विश्वास मत साबित करना भी बेहद नाटकीय रहा। लेकिन यहां भी बाजी मायावती के हाथ ही लगी। इसके बाद मायावती ने पीछे मुड़कर नहीं देखा और जिन दलों के सहयोग से वे पहली बार मुख्यमंत्री बनी थीं, उनमें से कुछ तो उत्तर प्रदेश में खत्म हो गए और कुछ बिल्कुल हाशिये पर हैं। 2014 के लोकसभा चुनावों को अपवाद छोड़ दें तो भाजपा और कांग्रेस भी मायावती के उभार के बाद उत्तर प्रदेश में हाशिये पर ही दिखती रही हैं।

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