हेमंत शर्मा की इतवारी कथा, चंपा बाई- तवायफ

0

यह आर्टिकल हेमंत शर्मा के फेसबुक वॉल से लिया गया है. वह देश के जाने-माने पत्रकार, लेखक और TV9 भारतवर्ष के न्यूज़ डायरेक्टर है.

चंपा बाई।यह नाम सुनते ही जैसे मन के किसी कोने में अचानक चंपा के फूल खिलने का अहसास हो जाता है।चौंकिए मत।इस कहानी का सिरा आपकी सोच के बाहर का है। चंपा बाई, बनारस की दालमण्डी की मशहूर तवायफ थीं। बला की खूबसूरत, नामवर नर्तकी।संगीत के जानकार उसके गाने पर जान देते थे।तहज़ीब, शराफ़त, पेश आने के तरीक़े, हाज़िर जवाबी,सब में बेजोड़।लोग उनकी महफ़िल में अदब और आदाब सीखने आते थे।महफ़िल में उनके कदम पड़ते ही लोगों के दिल मचल उठते और होशो-हवास वक्त के किसी ‘इंटरवल’ में गुम हो जाते थे। ऐसी थी उनकी शोहरत।
आचार्य चतुरसेन के शब्दों में “उसकी देहयष्टि जैसे किसी दिव्य कारीगर ने हीरे के अखंड टुकड़े से यत्नपूर्वक खोदकर गढ़ी थी। जिससे तेज आभा, प्रकाश, माधुर्य, कोमलता और सौरभ का झरना झर रहा था।इतना रूप, सौष्ठव और अपूर्वता कभी किसी ने एक जगह इकट्ठा नहीं देखा होगा।अपने कोठे पर वह रूप, यौवन, मद, सौरभ बिखेरती चलती थी।” इस चंपाबाई की एक झलक पाने को बनारस का श्रेष्ठिवर्ग बड़े यत्न करता था। कुछ ऐसे भी थे जो जान पर खेल जाते थे।मैं चंपाबाई से कब? कहां? और कैसे मिला? इसका ज़िक्र बाद में।

ये भी पढ़ें- हेमंत शर्मा की इतवारी कथा, बापू -अखबारवाला

मित्रों, चंपा बाई की इस कहानी को शुरू करने से पहले आपको दालमंडी की गलियों में ले चलता हूं। सुरों की गली, अदब की महफ़िल, गुणवन्तो की इबादतगाह, हुनर की मण्डी और बनारसी रईसी परम्परा को दालमण्डी कहते हैं। महाकवि जयशंकर प्रसाद और भारतेन्दु की यह आश्रयस्थली थी। यहां न कोई छोटा, न बड़ा, सब बराबर।दालमंडी में आने के लिए बस संगीत में रुचि, तहज़ीब के जानकार और अंटी में माल होना चाहिए।’बनारसी संगीत’ की एक विशाल परम्परा है।और दालमण्डी उस परम्परा का अबूझ सा स्रोत।समझने वाली बात यह भी है कि दालमण्डी वेश्यालय नहीं था।यहां सुरों की महफ़िल सजती थी। और संगीत की दुनिया रौशन होती थी।

वक्त ने दालमण्डी को इतना बदनाम कर दिया है कि दालमण्डी की शोहरत दुनिया में तो हुई, पर बनारस के राजस्व दस्तावेज़ों में इस मुहल्ले का नाम तक दर्ज नहीं है। कभी इसी मुहल्ले में पारसी थियेटरकार आगा हश्र काश्मीरी रहा करते थे। भारत रत्न बिस्मिल्ला खां का घर इसी मुहल्ले का सराय हडहा था। दरअसल चौक से नई सड़क के बीच जिस गली को लोग दालमंडी के नाम से जानते है, उस गली का नाम हकीम मोहम्मद जाफर मार्ग है। इस गली के एक ओर चहमामा है तो दूसरी ओर रेशम कटरा मुहल्ला। किशोरावस्था में मैं जब भी चौक से घर लौट रहा होता तो रास्ता दालमंडी से होकर ही गुजरता। गली में पहुंचते ही कहीं ठुमरी, कहीं पूरबी, कहीं घुंघरूओं का सुर, कहीं तबले की थाप, कहीं सारंगी की तान सुनाई देती। लगता था हम किसी संगीत गुफा से निकल रहे हों।

रास्ते में मौसमी इत्रों से भिने रसिक और चम्पा चमेली की मालाएं हाथ में लपेटे साजिंदे पान की दुकानों पर सजे होते। इस चकाचौंध रौनक के बीच अपनी बारी का इन्तज़ार करते लोग भी चायपान की दुकानों में मौजूद रहते। पूरा इलाक़ा गुलज़ार रहता। अगर कोई एक बार इस गली से पार हुआ तो उसके घुटने और टखने में चोट ज़रूर लगती थी। वजह ये कि गली तंग थी, लोग चलते वक्त उपर बालकनी पर लगे चिकों के पीछे से झॉंकते सौन्दर्य को तजबीजते और आगे चल रहे साईकिल या रिक्शे से टकरा जाते।गली के बाहर निकलते-निकलते आपको अपने घुटनों को निहारते, सहलाते ढेर सारे लोग मिल जाते।

शहनाई नवाज़ उस्ताद बिस्मिल्लाह खां कहते थे कि अगर कोठे नहीं होते, तवायफ़ें नहीं होतीं तो आज बिस्मिल्लाह बिस्मिल्लाह नहीं होता। उनका मानना था कि जितनी पक्की गायकी कोठे पर थी, वह कहीं और नहीं मिलती थी। बृजबाला मुज़फ़्फ़रपुर की तवायफ थी। खां साहब डुमराव के रहने वाले थे। एक महफ़िल में दोनो की मुलाक़ात हुई। और इस तवायफ ने बिस्मिल्ला को बिस्मिल्ला बना दिया। ‘गूंज उठी शहनाई’ में भरतव्यास का वो गीत ‘दिल का खिलौना हाय टूट गया’ बृजवाला की ही धुन थी। खां साहब इससे अमर हो गए। खां साहब कहते थे “मैं उनके साथ में बहुत रियाज करता था। उनकी बंदिश को मैंने शहनाई में उतारा और मेरी वह फूंक अमर हो गई।” ये बात दीगर है कि खां साहब भारत रत्न बने और बृजबाला गुमनामी के अंधेरे में गुम हो गईं।

तवायफ, वेश्या, गणिकाएं, वारांगना, नगर वधू , पतुरिया, रंडी-मुंडी देश के सांस्कृतिक इतिहास की ये रवायतें कोई ढाई से तीन हज़ार साल पुरानी हैं।अवध, बनारस और मुज़फ़्फ़रपुर का चतुर्भुज स्थान इस इतिहास के जिन्दा केन्द्र रहे हैं। बौद्ध काल में भी गणिकाओं का उल्लेख मिलता है। आम्रपाली की कथा तो आप जानते ही होंगे। बुद्ध ने इसकी प्रतिभा देख इसे अपने विहार में प्रवेश दिया था। तब तक महिलाएं बौद्ध विहारों में प्रतिबंधित थीं। पारम्परिक मुजरा, गीत, ग़ज़ल, बंदिशों के बोलों को भावपूर्ण नृत्य शैली में अंजाम देने वाली नर्तकी को तवायफ कहते हैं। यह नर्तकियां ‘पेशवाज’ पहन कर नृत्य करती थीं, जिसमें शरीर के ऊपरी भाग में घेरेदार अंगरखा और पैरों में चूड़ीदार पाजामा पहना जाता है।
तवायफें अमूमन जिस्मफरोशी नहीं करती थीं। आमतौर पर किसी राजा, नवाब, रईस या गोरे साहब की रक्षिता (रखैल भी पढ़ सकते हैं) के तौर पर ये तवायफें अपना जीवन गुज़ारती थीं। हर शाम कोठे पर महफ़िल सजाना और उपशास्त्रीय गायन ही इनका काम था।

तवायफों का इतिहास बहुत पुराना है। संस्कृत में गणिका का मतलब वेश्या होता है। ‘शब्द कल्पद्रुम’ में इन्हें लम्पटगणों की भोग्या कहा गया है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र के मुताबिक़ उस वक्त गणिकाओं का इस्तेमाल सूचना इकट्ठा (जासूसी) करने के लिए भी होता था। बाद के दिनों में वेश्या नृत्य संगीत के अलावा जिस्मफरोशी में भी लग गईं। साधारण तौर पर इन्हें कोठेवालियां या रंडी भी कहते हैं। अवध में इन्हे पतुरिया भी कहा जाता था। वैसे काशी की तवायफ परम्परा काफ़ी समृद्ध थी तभी तो भारतेन्दु ने ‘प्रेमयोगिनी’ में लिखा है “आधी कासी भाट भटेरिया बाम्हन औ संन्यासी।आधी कासी रंडी मुंडी रांड़ खानगी खासी।।देखी तुम्हरी काशी लोगों, देखी तुम्हरी काशी ”

पर तवायफ और गणिका में बड़ा झीना अन्तर है। ‘तवायफ’ अरबी ‘तायफा’ का बहुवचन है जिसका अर्थ है व्यक्तियों का दल, विशेषत: गाने बजाने वालों का दल। इस मंडली में शामिल नाचने वाली को ही ‘तवायफ’ कहा गया है। मध्य युग में रईस और जमींदारों के घरों में विवाह या अन्य- उत्सवों में मुजरा होता था। मुजरे में कई तवायफ अपनी साथियों के साथ शामिल होती थीं। तवायफों की परिभाषा शब्दकोष में भी मिलती है। मुजरे में नाचने वाली नर्तकियों को तवायफ कहा जाता है।
(देवनागरी उर्दू हिंदी कोश, पेज- 8।-संपादक रामचंद्र वर्मा) भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद के दिनों में अंग्रेजों ने गड़बड़ की। सभी नाचने वालियों को एक ही श्रेणी में रख इन्हें ‘नॉचगर्ल’ कहा। इसी के चलते समझ में यह अंतर मिटने लगा। अंग्रेजी चश्मे से लिखे गए इन अभिलेखों, क्रॉनिकल, गज़ेटियर में इन सबको ‘नॉच गर्ल’ करार दिया गया। इस विषय पर सबसे प्रामाणिक लेखन अंग्रेज़ लेखक प्राण नेविल और फ्रेंचेस्का ऑरसीनी का है। जबकि हिन्दी में यथार्थवादी लेखन अमृत लाल नागर की ‘ये कोठेवालियां’ है।

लौटते हैं चंपा बाई से मेरी उस मुलाक़ात पर। दरअसल बीएचयू के हिन्दी विभाग में मेरे गुरु जौनपुर के एक बाबूसाहब थे। छात्रों के बीच अति लोकप्रिय मेरे गुरुदेव के मित्रों का समाज बड़ा व्यापक था। हर किसी की मदद को तैयार गुरु जी के सब टेढ़े मेढ़े काम मेरे जिम्मे आते थे। उनके ख़ास रिश्तेदार आज़मगढ़ के बाबू साहब (बाबू साहब पूरब में राजपूतों को सम्मान में कहा जाता है) के यहां विवाह था। बनारस से नाच जाना था। पर नाच तय कौन करे? कैसे करे? उस वक्त की सर्वोत्तम बाई जी कौन हैं? सवाल बड़े ही जरूरी पर जटिल थे और गुरु जी के हाथ पांव फूल रहे थे। मामला मेरे पास आया। शर्तें सामने रख दी गईं। मुझे नृत्य की गुणवत्ता भी जांचनी थी। बाई जी नामी हों और पैसा भी ज़्यादा न लगे इसका ख़्याल भी रखना था।

इस महान काम के लिए मेरा कोई अनुभव नहीं था। मेरे साथ पढ़ने वाले अरुण जी संगीत में सिद्ध थे।वे कभी तवायफों के साथ हारमोनियम पर संगत भी कर चुके थे।आजकल प्रोफ़ेसर हैं।सो मैंने उन्हें साथ लिया।कोई गड़बड़ न हो इसलिए चौक थाने से एक सिपाही का इंतज़ाम किया।थानेदार परिचित थे इसलिए ये काम आसानी से हो गया।हम निकल पड़े इस अनोखी ‘गुरु दीक्षा’ के ऐतिहासिक काम पर।

मैं कभी कोठे पर नही गया था।सो भीतर से मन में संकोच था और बाहर लोक लाज का भय भी। हालांकि मैने मुंशी प्रेमचंद जी के “सेवासदन” उपन्यास में दालमंडी के कोठे का वर्णन ज़रूर पढ़ा था।मन बहुत जिज्ञासु था पर काम बड़ा मुश्किल।कोठे पर जाना, नर्तकी का नृत्य देखना, और फिर सट्टा लिखवाना।यह भी तय करना की नर्तकी किस ‘कैटेगरी’ की है और उसका तवायफ परम्परा में क्या स्थान है?

थोड़ी देर में हम उसी बदनाम गली में थे। उपर कोठा और नीचे भरा पूरा बाज़ार। विदेशी घड़ियों से लेकर लालटेन तक की बाज़ार।बाजार के बीच से ही पतली, अंधेरी और खड़ी सीढ़ी थी। हम कोठे पर चढ़ रहे थे। पर मन अजीब दुविधा में था।एक ओर चकाचौंध भरी इस दुनिया को देखने की जिज्ञासा और दूसरी ओर बदनामी का डर।कोई देख लेगा तो क्या सोचेगा,यह कल्पना कर ही सिहरन होती थी और हुआ भी यही।मेरे एक परिचित कोठे की सीढ़ियों से उतरते हुए दिखे। वह अपना चेहरा छुपाने की असफल कोशिश में थे। मेरा भी हाल कोई अलग नहीं था।

जब हम ऊपर पहुंचे तो देखा एक साठ-पैंसठ बरस की अवकाश प्राप्त तवायफ पनडब्बे के साथ बैठी थीं। बड़ी अदा और तहज़ीब से उन्होंने हमें गद्दे पर बैठने का इशारा किया। उस हॉल नुमा कमरे में संगीत के साजिंदे पहले से ही अपने निर्धारित स्थान पर काबिज थे।फिर चाय और पान से हमारा स्वागत हुआ।रिटायर्ड तवायफ ने कुछ इशारा किया और साज से आवाज़ फूटने लगी। उस मोहक धुन की थाप पर अचानक ही थिरकती हुई चंपा बाई नमूदार हुईं।उनके साथ एक एक्स्ट्रा कलाकार भी थी। चंपा बाई का सौन्दर्य देखते ही बनता था।

वह किसी फ़िल्मी गाने पर नृत्यरत थीं। उनके नृत्य में अभिनय का जबरदस्त पुट था। जब वह एक आवर्तन पूरा कर अंतरे से मुखड़े पर आती और फिर जब सम आता, तो उस वक्त उस नर्तकी की भाव भंगिमा गजब की होती। उसका दूसरा गाना था, “मैं तवायफ हूं मुजरा करूंगी।” फरमाइश करने पर उसने ठुमरी और दादरा भी सुनाई। वस्तुतः बनारसी ठुमरी में जो खुसूसगी है, उसका बहुत सारा अंश इन्हीं कोठों से आया है।कोठों ने संगीत को संरक्षित करने में बड़ी अहम भूमिका निभायी है। कुछ गाने चंपा बाई ने बैठकर भी सुनाए। जैसे “हमसे कर के हो बहाना सैयां कंहवां गइला ना” और फिर यह दादरा-
“भींगे पसीनवां से अंगिया
बलम तनि बेनिया डोला द ना!”
सब झूमने लगे।फ़िल्मी गाने के साथ। कजरी,चैती,
होरी,ठुमरी,दादरा झूला की प्रस्तुतियॉं चंपा को अलग क़िस्म का फ़नकार बता रही थी।चंपा बाई के व्यक्तित्व में सौंदर्य, अदा और कलाकारी का गजब समन्वय था। बज्म उठ गई और फिर औपचारिक सट्टा लिखा गया। सट्टा पेशगी रक़म के साथ किया गया एक तरह का करारनामा होता है जिसे बनारसी बयाना भी कहते हैं। इस अनुबंध की भाषा भी विचित्र थी, “मैं चंपा बाई आज तारीख़……को
…….फलाने सिंह के बारात में अपने नृत्य और संगीत की महफ़िल के लिए इस इकरारनामे को मंज़ूर करती हूं, जिसका महसूल ….. रुपया होगा। पेशगी में…….हमें इतने रुपए नकद मिले।पर किसी भी आसमानी, सुलतानी अथवा मुल्तानी आफ़त में यह इकरारनामा रद्द माना जाएगा।

तवायफों को महफ़िल में जाने से पहले पेशगी और लौटते वक्त रूखसताना पेश किया जाता था। रात के कोई दस बज चुके थे। हम चलने को थे कि चंपा बाई आ गयीं। वो बतियाना चाह रही थीं और हम लजा रहे थे। उन्होंने ही शुरूआत की। मुझसे पूछा, ‘कैसा लगा आपको नृत्य’, मैं बातचीत के लिए तैयार नहीं था। थोड़ा हिचकिचाते हुए बोलना शुरू ही किया, ‘जी…बहुत…..’ तब तक वे मुझे रोककर बोल उठीं, ‘बाबू साहब, बुलावा लेकर आए हो और इतना शर्मा रहे हो। ऐसे कैसे चलेगी बाबू साहबी।’

वे मुस्कुराईं। मुझे लगा कि वे मुझे मुजरे का पुश्तैनी और खानदानी कद्रदान समझ बैठीं हैं और मेरे ही समारोह में उन्हे चलना है।मैं बताना चाह रहा था कि मैं तो महज डाकिया हूं।मैंने उनकी गलतफहमी दूर करने की कोशिश की।
मैनें कहा, ‘जी, मैने पहले कभी ऐसा देखा नहीं। मेरे लिए यह पहला अनुभव है देवी जी, मैं पहली बार किसी कोठे पर आया हूं।’ वे फिर मुस्कुराईं। इस बार उनकी मुस्कुराहट पहले से कुछ अलग थी। उसमें एक अबूझा सा वात्सल्य नजर आ रहा था। “तो कैसा लगा पहली बार कोठे पर आकर?” सवाल खत्म करते करते वे खिलखिला उठीं। मैने कहा, ‘अभी सोचा नहीं है, आपसे फुरसत मिले तो फिर सोचूं।’अब मेरे चेहरे पर मुस्कुराहट तैर गई। वे खिलखिला उठीं, बोलीं ‘बड़े हाजिर जवाब लगते हैं। मेरे कोठे पर पहली बार आए हो और पहली बार में ही छाप छोड़कर जा रहे हो।’ मैंने कहा, ‘देवी जी,(बाई जी कहना अच्छा नहीं लग रहा था )आपका बड़ा नाम सुना था।जैसा सुना था, वैसा ही पाया।’उन्होंने कहा मैं समझ सकती हूँ।कोठे में पली पोसी गायकी का ज़िक्र बहुत शर्मिंदगी और झिझकते हुए किया जाता है।’ मैंने महसूस किया कि चंपा में एक इज़्ज़तदार ज़िन्दगी जीने की हुडक थी।

वे कुछ देर के लिए खामोश हो गईं। फिर धीमी आवाज़ में कहा, ‘इस कोठे पर नाम ही तो नहीं बचता है। लेकिन मैंने वही बचाकर रखा है…खैर!’ मेरी और उनकी बातचीत चल ही रही थी कि इसी बीच एक प्यारी सी बच्ची दौड़ती हुई आई। मैंने उत्सुकतावश पूछा, ‘ये कौन है’। उन्होंने कहा, ‘मेरी बच्ची है।
मैंने उससे पूछा, ‘पढ़ती हो’।
उसने कहा, ‘हां’
किस क्लास में?
बच्ची बोली केजी-2 में।
किस स्कूल में?
वो बोली, ‘सेंट जॉन्स’।स्कूल का नाम सुनकर, मेरे पैरों तले ज़मीन खिसक गयी। यह बनारस का नामी स्कूल था। बड़े-बड़े लोगों के बच्चे वहां पढ़ते थे। बड़ा खर्चीला स्कूल था। अपनी बेटी को बेहतर शिक्षा दिलाने का हौसला देख चंपा बाई की छवि मेरे मन में एक झटके में बदल गयी। मैंने उत्सुकतावश चंपाबाई से पूछ ही लिया,
‘बेटी के लिए क्या सोचा है?’

“बेटी जो चाहेगी, वो करेगी। पर इतना तय है कि उसकी दुनिया और कहीं भी होगी, इस कोठे पर नहीं।” मैंने उनकी आंखों में एक अजीब किस्म की दृढ़ता देखी। बेटी अब तक उनका पल्लू पकड़कर झूल रही थी। मैंने विदा मांगी। उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा,‘मैं ये तो नहीं कहूंगी कि यहां फिर आइएगा, मगर अपनी जिंदगी के इस पहले कोठे को याद जरूर रखिएगा।’

मैंने भी हल्की मुस्कुराहट के साथ जवाब दिया, “जी, कोठा याद रहेगा या नहीं, इसकी गारंटी तो नही दे सकता मगर कोठेवाली ज़रूर याद रहेगी।” वे एक पल को खामोश हुईं, फिर कर हंस पड़ीं, “यहां आने वालों के मुंह से तो गारंटी की बहुत बातें सुनती आई हूं पर पहली बार किसी जाने वाले ने गारंटी की बात की है। याद रखूंगी।” ‘जी शुक्रिया’ कहकर मैं सीढ़ियां उतर वापस चल पड़ा।
उनकी खिलखिलाहट मेरे कानों में देर तक गूंजती रही। हमलोग चंपा बाई से दुआ सलाम के साथ वापस लौट आए। कोठा देखने और समझने की ललक अब शांत हो चुकी थी। सट्टा हो गया, गुरू के आदेश का पालन हुआ। पर मैं न शादी में गया न चंपा बाई से दुबारा मिला। लेकिन चंपा स्मृतियों में दर्ज हो गयी।

चंपा अपने आप में एक विरासत की कड़ी थीं। यह बनारस की बेहद समृद्ध विरासत थी। बनारसी संगीत के साथ-साथ यहां की तवायफों की शोहरत चारों ओर थी। पंद्रहवीं शताब्दी में अकबर के नवरत्नों में से एक राजा मानसिंह ने काशी में भगवान शिव के एक मंदिर की मरम्मत करवाई। इस मौके पर राजा मानसिंह एक संगीत नृत्य का कार्यक्रम आयोजित करना चाहते थे, लेकिन कोई भी कलाकार यहां आने के लिए तैयार नहीं था। तब शमशान घाट पर होने वाले इस महोत्सव में थिरकने के लिए नगर वधुएं तैयार हो गईं। तभी से धीरे-धीरे यह परंपरा बन गई। चैत्र के सातवें नवरात्र की रात को हर साल यहां श्मशान महोत्सव मनाया जाता है। आज भी नगरवधुएं यहां सारी रात नृत्य करती हैं।

आधुनिक हिन्दी के जन्मदाता भारतेन्दु भी इसी गली की एक नर्तकी मल्लिका पर लट्टू थे।ये बंगभाषी थीं और कविता भी लिखती थीं। भारतेन्दु ने मल्लिका पर सब कुछ लुटा दिया। भारतेन्दुकालीन तवायफों में गफूरन, नगरसुन्दरी और सरस्वती बाई भी मशहूर थीं।ये सब श्रेष्ठ नर्तकी भी थीं। तौकी की समकालीन ‘नन्हीं पागल’ अपने युग की बेजोड़ गायिका थी। मैना कोई विशेष रूपसी तो नहीं थी, लेकिन उसका कंठमाधुर्य ईश्वरीय देन थी। सबके अपने अपने ठिकाने थे। तौकीबाई (राजादरवाजा), बड़ी मैना (भार्गव बुक डिपो, चौक), हुस्नाबाई (कन्हैया लाल दामोदर सर्राफ, राजा दरवाजा कोठी के अगले हिस्से में ), फ़िल्म अभिनेत्री नरगिस की मां जद्दनबाई (वर्तमान चित्रा सिनेमा) सब अपने अपने ठिकानों के लिए मशहूर थीं।

जद्दनबाई बाद में रथयात्रा पर खन्ना बाबू के साथ खन्ना विला में रहने लगी।जहां आज कल मित्रवर Ajay Trivedi रहते हैं। नरगिस का जन्म यहीं हुआ था। जानकीबाई (नारियल बाजार), गौहरजान- रायललन जी छगन जी के गणेश बाग (कबीरचौरा), राजेश्वरी बाई (नारियलबाजार),काशीबाई, रसूलनबाई (छत्तातले), कमलेश्वरी, दुर्गेशनन्दिनी, छोटी मोती (राजा दरवाजा), चम्पा (नारियल बाजार), सिद्धेश्वरी (खत्री मेडिकल हाल के प्रथम मंजिल पर चौक), शाहजहां बेगम, भौंफटीकेसर (दालमण्डी) और पन्ना, जूही, रतना- गोविन्दपुरा में रहती थीं। विद्याधरी, हुस्नाबाई, बड़ी मोती के आवास पर दरबान का पहरा लगा रहता था। यहां बिना अनुमति के प्रवेश-निषेध था। ये सारी तवायफें अपने कार्यक्रमों में बग्घी या डोली पर बैठकर जाती थीं।शहर में इनकी प्रतिष्ठा थी। प्राचीन भारत में भी राजा के बाद चंवर और राजदण्ड केवल ‘राजपुरोहित’ और ‘राजनर्तकी’ के लिए ही अनुमन्य था।

चंपा बाई के बहाने एक बात और याद आई। बहुत कम लोग जानते हैं कि दालमण्डी में कभी ‘तन’ का सौदा नहीं होता था, केवल संगीत और नृत्य के ताल गूंजा करते थे। उन दिनों गाने-बजाने और नृत्य व मुजरे की भी एक मर्यादा होती थी। उस जमाने की हुस्नाबाई, धनेसरा बाई, रसूलन बाई, सिद्धेश्वरी बाई, फिल्म अभिनेत्री नरगिस की मां जद्दनबाई और छप्पन छुरी के नाम से मशहूर जानकी बाई का नाम पूरे मुल्क में रौशन था।आज भी उन्हें याद किया जाता है। इन कलाकारों को प्रोत्साहित करने वाले शहर के कुछ रईस होते थे, जो उनकी देखभाल भी करते।अपने जमाने की मशहूर तवायफ उमराव जान भी कभी कुछरोज़ के लिए इसी गली में रही थी।बनारस के फातमान में उनकी भी मज़ार है।भारतरत्न बिस्मिल्ला खॉं के बग़ल में।

बनारस की दालमंडी का इतिहास बेहद समृद्ध है। इसकी तुलना दिल्ली के जीबी रोड, मुंबई के कमाठीपुरा या कोलकाता के सोनागाछी से नहीं हो सकती।यहां कलाओं का ऐश्वर्य था, सौंदर्य की मिश्री थी।साहित्य की गंगोत्री थी। यहॉं बनारसी संगीत की समृद्ध दुनिया में, एक लम्बी और बड़ी विरासत मौजूद है।दालमंडी सिर्फ शरीर नही है, इसके भीतर एक रुह भी है। इसे समझने के लिए व्यक्ति को जिस्मानी नही, बल्कि रुहानी होना पड़ता है। चंपाबाई इसी रुहानी विरासत की कड़ी थीं।मैने इस विरासत को उसके ऐश्वर्य और गरिमा के साथ देखा है।
(कथा अभी बाक़ी है।शेष अगले हफ़्ते)
चित्रांकन- माधव जोशी

ये भी पढ़ें- हेमंत शर्मा की इतवारी कथा : सालिगरामवॉं

(अन्य खबरों के लिए हमें फेसबुक पर ज्वॉइन करें। आप हमें ट्विटर पर भी फॉलो कर सकते हैं। अगर आप डेलीहंट या शेयरचैट इस्तेमाल करते हैं तो हमसे जुड़ें।)

Leave A Reply

This website uses cookies to improve your experience. We'll assume you're ok with this, but you can opt-out if you wish. AcceptRead More