यह एक युगांतरकारी घटना!

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अग्निशेखर (कश्मीर के मशहूर कवि)

यह एक युगांतरकारी घटना है। धारा 370 खत्म होने के साथ ही जम्मू-कश्मीर में अलगाववादी वर्चस्व समाप्त हो गया है। पाकिस्तान में जिस तरह की बेचैनी है, उसे देखते हुए सवाल उठता है कि एक अस्थायी व्यवस्था इतने वर्षों से आखिर क्यों लागू थी? उसे लागू करने वालों ने अगर उसे अस्थायी कहा था, तो उनका मंतव्य क्या यही नहीं था कि एक दिन इसकी कोई जरूरत नहीं रह जायेगी?

शायद उन्होंने सोचा था कि व्यवस्था परिवर्तन होते ही इसकी प्रासंगिकता खत्म हो जायेगी। तब से 70 साल से ज्यादा समय बीत गया। कहा जाने लगा कि कश्मीर के भारत से जुड़े रहने की यह अनिवार्य शर्त है और इसके खत्म होते ही कश्मीर भारत का नहीं रहेगा। इस व्यवस्था ने कश्मीर के आम मुसलमानों को क्या दिया?

क्या वहां इसी व्यवस्था के चलते महिलाओं को, गरीबों, अनुसूचित जातियों, शरणार्थियों को उनके अधिकारों से वंचित नहीं रखा गया? क्या इसी व्यवस्था के तहत एक ही देश में नागरिकों को दोहरे कानून, दोहरे संविधान का सामना नहीं करना पड़ा? क्या इसी व्यवस्था ने कश्मीरी पंडितों को निष्कासित जीवन जीने को मजबूर नहीं किया?

न वहां संसद के फैसले लागू हो सकते थे, न सुप्रीम कोर्ट के। इन सारी बातों को भारत से अभिन्नता के रूप में देखा जाना चाहिए या अलगाव के रूप में? अब कुछ लोग कह रहे हैं कि कश्मीर फिलस्तीन बन सकता है। तो क्या अभी हालात बेहतर हैं?

क्या उन्हें नहीं लगता कि अलगाववादियों और पाकिस्तान ने मिलकर कश्मीर को नरक बनाये रखने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है? क्या यह सच नहीं कि कश्मीर के राजनेता भी अलगाववादियों के ही पक्ष में हमेशा झुके रहे? हां, इस कार्रवाई के लिए जिस तरह कश्मीर को जेल में बदल दिया गया, उससे सहमत नहीं हुआ जा सकता।

आम कश्मीरियों को राजनीतिक स्तर पर इसके फायदे-नुकसान के बारे में बताये जाने की जरूरत थी, उन्हें बताया जाना चाहिए था कि किस तरह अलगाववादियों और राजनीतिक‌ दलों के नेताओं ने अपने फायदे के लिए दशकों से उनका इस्तेमाल किया। अगर उनकी सहमति से इसे खत्म किया जाता तो ज्यादा बेहतर होता। ऐसा न करके भाजपा जिस तरह धारा 370 के खात्मे को सामूहिक विजयोल्लास का स्वरूप दे रही है, वह पूरी तरह राजनीतिक है और इसीलिए अस्वीकार्य है।

(ये लेखक के निजी विचार हैं।)

 

 

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