तिरछी नजर: जरा फासले से मिला करो

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इन दिनों मुझे रमानाथ अवस्थी के एक गीत की यह पंक्ति बार-बार याद आ रही है- ‘भीड़ में भी रहता हूं वीरान के सहारे, जैसे कोई मंदिर किसी गांव के किनारे’। आप कहेंगे कि एक से एक बड़े कवि हैं और आपको यही मंचीय गीतकार याद आ रहा है। लेकिन मैं कहूंगा कि बंधु, कविता तो वही जो वक्त पर काम आए और ये लाइनें आजकल बड़े काम की हैं। ये कोरोना के ‘रोनावादी’ दिन हैं। जिसे देखो, वही रो रहा है।

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ज्यों-ज्यों बड़े-बड़े डॉक्टरों के विचार सुनता हूं, मुझे यकीन होता जाता है कि डॉक्टरों के पास कोरोनाCorona का तोड़ हो या न हो, लेकिन उससे बचने का कुछ उपाय अपनी कविता और शेरो-शायरी में अवश्य है। इसीलिए मुझे इन दिनों अवस्थी जी के गीत की ये दो लाइनें एक बेहतरीन उपाय नजर आती हैं। यह गीत कहता है कि कवि भीड़ में भी अकेला होता है। जिस तरह से मंदिर गांव से दूर हुआ करता है, उसी तरह कवि भीड़ से दूर रहता है।

ऐसी ही बातें इन दिनों डॉक्टर समझाते रहते हैं कि कोरोनाCorona वायरस से बचना है, तो ये 95 नंबर वाला मास्क पहनो। किसी से हाथ न मिलाओ। नमस्ते करो। साबुन से बीस सेकंड तक हाथ धोओ। अल्कोहल वाले सैनेटाइजर से हाथ साफ करो। जुकाम-खांसी वाले से तीन-चार फीट दूर रहो। भीड़ में न जाओ। सबसे बेहतर है कि अपने घर में रहो और अपने को क्वारंटीन कर लो। यानी कि अपने को बिल्कुल अकेला कर लो, अपना एकांत बना लो, एकदम कवि की तरह हो जाओ।

अब क्या बताऊं कि मुझे एक ‘कवि-हृदय’ मिला है। इतना अधिक संवेदनशील हूं कि इधर हवा बदलती है, तो उधर मुझे यह महसूस हो जाता है कि कुछ बदल रहा है। और हर सच्चा कवि ‘दूरद्रष्टा’ तो होता ही है। कवि-हृदय होने के नाते मैं भी एक छोटा-मोटा ‘दूरद्रष्टा’ हूं। अक्सर दूर की कौड़ी लाता हूं, इसीलिए मैं इस गीत को ले आया।

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जब से चौबीस बाई सात के हिसाब से हमारे मीडिया व एक्सपर्ट्स ने कोरोना वायरस को अब तक की सबसे खतरनाक ‘महामारी’ बताया है और जब से दुनिया का एक से एक बड़ा डॉक्टर, बिना फीस लिए कोरोना से बचने के एक से बढ़कर एक उपाय बताए जा रहा है, तब से ही मुझे अवस्थी जी के गीत की ये पंक्तियां रह-रहकर याद आ रही हैं।

डॉक्टर कहते हैं कि सबसे बेहतर है कि आप भीड़ से बचें और अपने आप को अकेला कर लें। यह गीत भी अकेले होने की कला सिखाता है। साहित्य के विद्यार्थी जानते हैं कि ‘अकेलेपन’ और ‘अजनबीपन’ का साहित्य में बड़ा महत्व है। जिसे अब तक समझाते रहे कि तू सामाजिक प्राणी है, उसी को अब कह रहे हैं कि तू ‘असामाजिक’ हो जा। अपने को अकेला कर। अपने जनतंत्र में, जहां हर बंदा भीड़ बनाने का शौकीन है, वह एकांत में भला कैसे रहे? तिस पर डॉक्टरों की भाषा ऐसी आदेशात्मक और डरावनी है, जो कहती रहती है कि अपने को आइसोलेट कर लो।

[bs-quote quote=”(यह लेखक के अपने विचार हैं, यह लेख हिंदुस्तान अखबार में छपा है)” style=”style-13″ align=”left” author_name=”सुधीश पचौरी” author_job=”हिंदी साहित्यकार” author_avatar=”https://journalistcafe.com/wp-content/uploads/2020/03/sudhish-pachauri.jpeg”][/bs-quote]

अरे भैये! अगर समझाना है, तो मम्मटाचार्य के ‘कांता सम्मित तयो उपदेश युजे’ की तरह प्यार से उस तरह समझाओ, जैसे कोई ‘कांता’ अपने ‘कंत’ को समझाती है।

और कुछ न हो, तो शायर बशीर बद्र की गजल के इस शेर को ही सुना दो, जो कहता है- कोई हाथ भी न मिलाएगा, जो गले मिलोगे तपाक से। ये नए मिजाज का शहर है, जरा फासले से मिला करो। इससे आदमी फौरन समझ जाएगा कि उसे क्या करना है?

 

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