2019 चुनाव में मोदी की दुबारा जीत के मायने बड़े हैं

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आशीष बागची

2019 लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी-अमित शाह के नेतृत्‍व वाली भाजपा नीत गठबंधन एनडीए की जबर्दस्‍त जीत ने उन सभी चुनावी भविष्‍यवाणियों को धराशायी कर दिया है जो इनकी जीत पर सवाल उठा रहे थे। इसके साथ ही इस जीत ने एक नये कीर्तिमान भी गढ़ दिये हैं। लगातार तीन बार जवाहरलाल नेहरु और दो बार इंदिरा गांधी ने बहुमत के साथ सत्‍ता में वापसी की थी। नरेंद्र मोदी वह तीसरे राजनेता होंगे जो भारी बहुमत के साथ दूसरी बार किसी गैर कांग्रेसी दल की वापसी करा रहे हैं। इसे भारतीय राजनीति में युगान्‍तकारी परिवर्तन भी कहा जा रहा है।

पोस्‍ट पोल सर्वे सही साबित हुए-

इससे यह भी साबित हो गया कि विभिन्‍न एजेंसियों ने जो पोस्‍ट पोल सर्वे किये थे और जिन्‍हें विभिन्‍न टीवी चैनेलों ने प्रसारित किये थे, वे लगभग सही साबित हुए हैं। विपक्षी दलों की ओर से सर्वे को लगातार खारिज किया जाता रहा है जो सही नहीं हुआ। इसके साथ ही इस चुनाव में 2014 की तरह ही जाति, संप्रदायों का घेरा भी टूटता दिखा।

 

नोटबंदी, जीएसटी, न्‍याय योजना को नहीं मिली तवज्‍जो-

ऐसा माना जाता है कि नोटबंदी, राफेल, जीएसटी को जिस आक्रामक तरीके से विपक्ष ने उठाया था, उसे मतदाताओं ने नकार दिया है। साथ ही राहुल गांधी की न्‍याय योजना को भी समर्थन नहीं मिला। इसके तहत पांच करोड़ गरीब परिवारों को 72 हजार रुपये सालाना मिलने की बात थी।

 

इस बार मुद्दे अलग थे-

बात उत्‍तर प्रदेश की करें तो 2019 में जो मुद्दे थे वे पूरी तरह अलग थे जो 2014 में थे। माना जाता है कि 2014 के आम चुनाव में ध्रुवीकरण का भी थोड़ा बहुत माहौल था। उस वक्त चुनाव पर मुजफ्फरनगर में दंगों का साया भी तारी था। ये दंगे सितंबर, 2013 में हुए थे। इनमें 60 लोगों की मौत हुई थी। हजारों लोग बेघर हो गये थे। इस दंगे से इलाके में जाट-मुस्लिम समीकरण भी प्रभावित हुआ था। इसके अलावा जाटव और गुर्जरों के साथ मुस्लिम समाज के संबंधों पर भी विपरीत असर पड़ा था।

बीते चुनाव में सपा के खिलाफ ऐंटी इन्कम्बैंसी थी-

2014 के चुनावों में यूपी में अखिलेश यादव की सरकार के खिलाफ ऐंटी-इन्कम्बैंसी का भी असर था। इसके साथ ही 2019 में बीजेपी एक तरह से दोहरी ऐंटी-इन्कम्बैंसी झेल रही थी। केंद्र और उत्‍तर प्रदेश में भाजपा की सरकार है, ऐसे में उसके खिलाफ दोनों स्तरों पर लोगों की कुछ नाराजगी थी इसके बावजूद यूपी में भी भाजपा की जीत के बड़े सियासी मायने हैं। पश्चिमी उत्‍तर प्रदेश में विपक्ष ने गन्ने के बकाये के मामले को उठाया था पर यह कारगर नहीं रहा। 2019 के चुनाव में बीजेपी के सामने एकजुट विपक्ष की चुनौती थी। पिछली बार एसपी, बीएसपी, आरएलडी और कांग्रेस ने अलग-अलग चुनाव लड़ा था। लेकिन इस बार एसपी-बीएसपी और आरएलडी के महागठबंधन के चलते यूपी में बीजेपी को कड़ी चुनौती मिलती दिख रही थी। हालांकि, इसका कुछ असर रहा और भाजपा ने कम से कम बीस सीटें खोईं पर उसका विजय रथ नहीं रुका। कांग्रेस इस गठजोड़ का हिस्सा नहीं रही फिर भी वह अपना असर नहीं बढ़ा पायी।

ध्रुवीकरण का रहा असर-

हां, इतना जरूर हुआ कि भले ही बीते कुछ दिनों में बीजेपी के नेताओं ने अपने कई भाषणों से ध्रुवीकरण के प्रयास किये हों, लेकिन मुस्लिम और दलित नेताओं ने रणनीतिक तौर पर चुप्पी साधे रखी। इसके बावजूद बीजेपी की इस जीत के बड़े मायने निकाले जायेंगे।

अलग होकर भी यह चुनाव छाप छोड़ने में रहा सफल-

कई मामलों में 2019 का यह चुनाव बीते चुनावों से अलग था। इसके बावजूद बीजेपी नीत गठबंधन की जीत ऐतिहासिक है। पहली बार इस चुनाव में प्रियंका गांधी ने कांग्रेस की नेता और पदाधिकारी के तौर पर यूपी समेत दूसरे राज्‍यों में मोर्चा संभाला और चुनावी सभाएं कीं। इस बार आम चुनाव में 8.6 अरब डॉलर खर्च होने का अनुमान लगाया गया। चुनाव पर नजर रखने वाले दिल्ली के सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज (सीएमएस) ने यह अनुमान लगाया है, जो वर्ष 2014 के चुनाव से करीब दोगुना है। 2014 में करीब 3870 खर्च हुए थे।

लालू की गैरमोजूदगी में लड़ा गया चुनाव-

1980 के दशक के बाद यह पहला चुनाव था जो बिहार में लालू की गैरमौजूदगी में लड़ा गया। इस बार लालू यादव को सुप्रीम कोर्ट ने जमानत देने से इनकार कर दिया। पहली बार इस चुनाव में राहुल गांधी ने बतौर कांग्रेस अध्यक्ष पार्टी का घोषणा पत्र जारी किया। इसमें 22 लाख नौकरियों देने समेत कई दूसरे वादे भी किए गए। पर, मतदाताओं पर कोई असर नहीं पड़ा और भाजपा का विजय रथ नहीं रुका।

नहीं रहा असर ‘चौकीदार चोर’ के नारे का-

‘चौकीदार चोर है’ के खिलाफ आक्रामक रुख अपनाते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘मैं भी चौकीदार’ अभियान छेड़ा। उन्होंने दिल्ली में चौकीदारों को संबोधित किया। उनकी इस मुहिम के बाद भाजपा कार्यकर्ताओं समेत सांसदों ने अपने आगे मैं भी चौकीदार जोड़ लिया।

 

पहली बार दिखे माया-मुलायम एक साथ-

सपा संरक्षक मुलायम सिंह यादव और बसपा प्रमुख मायावती 25 साल बाद मैनपुरी की जनसभा में एक मंच पर दिखीं। 1995 में हुए गेस्ट हाउस कांड के बाद दोनों पार्टियों की राहें जुदा हो गई थीं। यूपी में 1993 के विधानसभा चुनाव के बाद यह पहला मौका रहा जब मायावती ने मुलायम के लिए वोट मांगे।

 

इंदिरा के बाद गांधी परिवार के किसी ने किया दक्षिण भारत का रूख-

अमेठी में अपनी संभावित हार को देखते हुए दक्षिण भारत में पार्टी की पैठ मजबूत बनाने के लिए कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने केरल की वायनाड लोकसभा सीट से पर्चा भरा। इसके पहले इंदिरा जी ने चिकमंगलूर से चुनाव लड़ा था। पहली बार इस चुनाव में आयोग में मतभेद साफतौर पर उभरकर सामने आए। आयोग द्वारा पीएम मोदी और अमित शाह को क्‍लीन चिट देने के मुद्दे पर चुनाव आयुक्त अशोक लवासा ने असहमति जताई। पश्चिम बंगाल में चुनाव के दौरान हिंसा पर कड़ा रुख अपनाते हुए आयोग राज्य सीआईडी के एडीजी और गृह विभाग के प्रधान सचिव को पद से हटा दिया। साथ ही चुनाव प्रचार तय तारीख से एक दिन पहले ही खत्म कर दिया। यह लोकसभा चुनाव नेताओं द्वारा दिए गए विवादित बयानों के लिए भी हमेशा याद किया जायेगा। तमाम विवादों के बावजूद यह साबित हो गया कि नरेंद्र मोदी छठीं बार लाल किले पर झंडा फहराने जा रहे हैं। कास्‍ट फैक्‍टर का उत्‍तर प्रदेश में असर कम होना भाजपा की इस विजय को और ऊंचाई पर ले जाता है।

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