मुंशीगंज गोलीकांड: जिसे भारत के इतिहास में जगह नहीं दी गई

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अगर आप देश के किसी भी सामान्य व्यक्ति से पूछे कि, अंग्रेज़ों ने अपनी हुकूमत के दौरान भारतीयों पर सबसे बड़ा ज़ुल्म कौन सा किया होगा तो शायद सभी लोगों का जवाब ‘जलियाँवाला बाग हत्याकांड ही होगा, जिसमें जनरल डायर  ने निहत्थे प्रदर्शनकारियों को घेरकर उनपर गोलियाँ चलवायी थीं। साल 1919 में 13 अप्रैल को भारत के पंजाब प्रान्त के अमृतसर में हुए इस नरसंहार में करीब 1000 लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा था और करीब 2000 से अधिक लोग हमले में घायल हुए थे, लेकिन अंग्रेजों द्वारा देश के भीतर केवल एक जलियांवाला बाग हत्याकांड को अंजाम नहीं दिया गया था।

गौरतलब है कि, साल 1919 में हुए जलियांवाला बाग हत्याकांड ने भगत सिंह, राजगुरु आदि जैसे क्रांतिकारियों को पैदा किया था। जिसके बाद देश में आजादी के लिए एक अलग लहर चली थी, जो महात्मा गांधी या अन्य किसी बड़े चेहरे द्वारा नहीं की गयी थी। वहीँ, अंग्रेजों ने सिर्फ पंजाब में ही जलियांवाला बाग हत्याकांड को अंजाम नहीं दिया था। पंजाब के अलावा भी अंग्रेजों ने देश में एक और हत्याकांड को अंजाम दिया था, जो बिल्कुल जलियांवाला कांड की तर्ज पर था। जिसका गवाह देश की राजनीति का मुख्य केंद्र और उस समय का सबसे बड़ा राज्य उत्तर प्रदेश बना था।

मुंशीगंज गोलीकांड:

उत्तर प्रदेश में एक किसान आन्दोलन को दबाने के लिए जालियांवाला बाग हत्याकांड की तर्ज पर दमन किया गया था। इतिहास में इस घटना को ‘मुंशीगंज कांड’ के नाम से जाना जाता है। मुंशीगंज काण्ड सूबे के रायबरेली जिले में एक किसान आन्दोलन के दमन के लिए किया गया था। यह घटना जलियांवाला बाग हत्याकांड के दो साल बाद 1921 में ही हो गयी थी। हालाँकि, देश के इतिहासकारों द्वारा ‘मुंशीगंज काण्ड’ की पूरी तरह उपेक्षा की गयी है। जिसके बाद ये सिर्फ क्षेत्रीय लोगों के किस्सों का हिस्सा मात्र बनकर रह गया है।

दरअसल,  साल 1920 में जलियांवाला बाग हत्याकांड के बाद अवध के किसानों का आन्दोलन शुरू हो गया था। उस दौरान यह आन्दोलन नया और प्रभावशाली आन्दोलन था। हालाँकि, यह आन्दोलन जलियांवाला बाग़ हत्याकांड के तुरंत बाद ही शुरू किया गया था, लेकिन आन्दोलन उग्र साल 1920 के अंत और 1921 की शुरुआत में हुआ था। किसान अवध के तालुकेदारों, जमींदारों और राजाओं के अत्याचारों से पीड़ित होकर अचानक से विद्रोह कर बैठे। किसानों का नेतृत्व तत्कालीन उग्रपंथी नेताओं तथा और साधु-सन्यासियों ने किया था। यह ठीक 1857 की क्रांति के आधार पर था।

‘सियाराम’ सुनते ही काम बंद कर देते थे किसान:

बताया जाता है कि,  1920 में शुरू हुआ किसान आन्दोलन 1857 की क्रांति जैसा ही था। बस यहाँ प्रतीक के तौर पर ‘रोटी और कलम’ नहीं थे, लेकिन हाँ किसान आन्दोलन के लोगों के पास अपना एक धार्मिक नारा था, ‘सीताराम’। जानकार बताते हैं कि, इस नारे की खासियत यह थी कि, इसकी ध्वनि कानों में पड़ते ही किसान अपने काम को बंद कर देते थे। जहाँ तक इसकी प्रतिध्वनि जाती थी, किसान ज्यों का त्यों काम बंद कर देते थे। ‘सीताराम’ शब्द की ध्वनि मात्र से किसान पूर्ण हड़ताल की अवस्था में पहुँच जाते थे।

अवध किसान सभा की स्थापना:

जानकार बताते हैं कि, अवध के किसानों को उस समय तक तालुक़ा के कुछ तथाकथित नेताओं का साथ मिल चुका था। जिसके बाद संगठनात्मक रूप देते हुए ‘अवध किसान सभा’ की स्थापना की गयी थी। अवध के इस किसान आन्दोलन के साथ इतिहासकारों ने पक्षपातपूर्ण रवैया अपनाया। आन्दोलन का एकमात्र जिक्र पूर्व प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरु ने ‘मेरी कहानी’ में किया था।

ब्रिटिश सरकार के दमन चक्र से परेशान किसानों में रोष:

अवध किसान सभा की स्थापना और किसान आंदोलन की शुरुआत के बाद किसानों ने सबसे पहला धमाका अवध के प्रतापगढ़ में किया था। ब्रिटिश सरकार के दमन चक्र से परेशान हो कर किसानों ने जिला कारागार पर आक्रमण कर दिया था। जिसके बाद ब्रिटिश सरकार को मजबूरीवश बंदियों को छोड़ना पड़ा था। इसके बाद किसानों ने रायबरेली में किसान सभा का आयोजन किया, लेकिन कार्यक्रम से पहले ही तालुकेदारों के गुंडों ने कई बाजारों के लूटने की अफवाह फैला दी थी।

वहीं, दूसरा धमाका डलमऊ के चंदनिहा में किया गया था। बताया जाता है कि, यहाँ की सियासत के राजा एक ठाकुर थे। जिनके पास ‘अच्छी जान’ नाम की एक रखैल वेश्या थी। जो एक प्रकार से सियासत की मालिकन थी। जानकार ये भी बताते हैं कि, अच्छी जान ने अपने एक विश्वासपात्र के हाथों से किसानों की फ़सलों में आग लगा दी थी। इस घटना के बाद भी किसानों में रोष था।

फसल को आग लगाये जाने के बाद किसान नेताओं के नेतृत्व में तीन हजार से अधिक किसानों ने कोठी का घेराव कर लिया था। हजारों किसानों का उत्तेजित समूह नारे लगा रहा था, अपनी मांगों की पूर्ति के लिए आवाज़ उठा रहा था। उसी समय तत्कालीन जिला मजिस्ट्रेट एजी शेरिफ तालुकेदार के निवेदन पर पुलिस लेकर पहुंचे। आन्दोलन की अगुवाई कर रहे नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया था। जिसके बाद यह अफवाह फ़ैल गयी कि, किसान नेताओं की हत्या कर दी गयी है। इसके बाद जो कमी रह गयी थी वो ‘फुर्सतगंज गोलीकांड’ ने पूरी कर दी।

इतिहास का वो काला दिन:

स्थानीय जानकार बताते हैं कि, मुंशीगंज गोलीकांड का स्थान, परिस्थितियां और वातावरण सब कुछ ही जलियांवाला बाग़ हत्याकांड जैसा था। प्रदर्शनस्थल के एक ओर सई नदी थी, जिसके पुल पर बैलगाड़ियों से पुल के पार खड़ी सेना ने रास्ता रोका हुआ था। वहीं, दूसरी ओर रेलवे लाइन थी, जिसकी ऊंचाई एक दीवार का काम कर रही थी। पीछे की ओर बाग, सरपत पुंज और रेलवे फाटक था।

सड़क और पटरियों के बीच त्रिकोण सी जगह में हजारों किसान प्रदर्शन के लिए जमा हुए थे। किसानों की भीड़ जेल जाकर अपने नेताओं को देखना चाहती थी। सुबह के 9 बजते-बजते सई नदी की रेती में अपार जनसमुद्र देखने को मिलने लगा था।

एजी. शेरिफ के मुताबिक, उस समय करीब 7 से दस हजार तक किसान मौजूद थे। भीड़ बड़ी मुश्किल से पीछे हट रही थी कि, तभी भीड़ छोटे-छोटे टुकड़ों में बंट गयी थी। जिसके बाद किसी ने किसानों पर गोली चला दी और उसके बाद किसानों पर अंधाधुंध गोलियां चलायी गयीं।

सई नदी की रेत लहुलुहान हो गयी थी, नदी का पानी पूरी तरह से लाल हो गया था। किसानों की लाशों को रातों-रात ही फौजी ट्रकों के सहारे डलमऊ भिजवा दिया गया था। रात में इधर-उधर खोजने पर जो लाशें मिली थी, उन्हें सामूहिक रूप से रेत में गाड़ दिया गया था।

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