विरासत को पहचानिए नए संवत्सर का स्वागत कीजिए

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चैत्र प्रतिपदा, नव संवत्सर, गुड़ी पड़वा, उगादी, नवरोज़ या चेटीचंड यह हमारी परम्परा का नया साल है। यही अपना न्यू ईयर है। नवीनता का पर्व है। हमारी परम्परा में यह माना जाता हैं कि दुनिया इसी रोज बनी थी। आज की पीढ़ी पहली जनवरी को ही नए साल के तौर पर जानती आई है। इसमें दो राय नही कि वह भी एक नया साल है। ईसवी संवत के मुताबिक। देश समाज उसी से चलता है। सो उसका भी स्वागत उत्साह से होना चाहिए। पर इस नए साल को भी जानना चाहिए जो हमारी परंपरा का गौरव है। जो हमारी विरासत की पहचान है। जो हमारी सनातनता का मान है।

हमारा यह नया साल रात के अंधेरे में नहीं आता

हमारा यह नया साल रात के अंधेरे में नहीं आता। हम नव वर्ष पर सूरज की पहली किरण का स्वागत करते हैं। जबकि पश्चिम में घुप्प अंधेरे में नए साल की अगवानी होती है यही बुनियादी फर्क है दोनो में अपने नए साल का तारीख से उतना सम्बन्ध नहीं है, जितना मौसम से है। उसका आना सिर्फ कैलेण्डर से पता नही चलता। समूची प्रकृति ही हमें झकझोर कर चौतरफा फूट रही नवीनता का अहसास कराती है। पुराने पीले पत्ते पेड़ से गिरते हैं। नयी कोपलें फूटती हैं।प्रकृति अपने श्रृंगार की प्रक्रिया में होती है। लाल, पीले, नीले, गुलाबी फूल खिलते हैं। यूं लगता है कि पूरी की पूरी सृष्टि ही नयी हो गयी है। नव गति, नव लय, ताल, छन्द, नव, सब नवीनता से लबालब।जो लोग क़ुदरत के इस खेल को नहीं समझते, वे न समझें। फ़रहत शहज़ाद की एक ग़ज़ल भी है जिसे मेहंदी हसन ने क्या ख़ूब गाया था –

‘कौपलें फिर फूट आईं, शाख़ पर कहना उसे,
वो न समझा है, न समझेगा मगर कहना उसे।’

हम दुनिया में सबसे पुरानी संस्कृति के लोग हैं। इसलिए हम अपने आधार को लेकर बेहद संवेदनशील हैं। ऋतुचक्र का घूमना ही शाश्वत है। यही जीवन है।इसी वजह से हम इस नए साल को उसकी मूल भावना के साथ गू्ंथकर मनाते आए हैं।उसके आने पर वैसी उछल कूद नहीं करते जैसी पश्चिम में होती है। हमारे स्वभाव में ऋतुओं के इस परिवर्तन की गरिमा है। वजह हम साल के आने और जाने दोनों पर विचार करते हैं।

पतझड़ और बसंत साथ-साथ। यही इस व्यवस्था के गहरे संकेत हैं। आदि-अंत। अवसान-आगमन। मिलना-बिछुड़ना। पुराने का खत्म होना, नए का आना। सुनने मेंचाहे भले यह असगंत लगे। पर है साथ-साथ। एक ही सिक्के के दो पहलू। जीवन का यही सार है। यही है नया साल।

हिन्दू कैलेण्डर विक्रम संवत की शुरूआत इसी चैत्र प्रतिपदा से होती है। ब्रह्म पुराण के अनुसार चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ही सृष्टि बनी थी। इसी रोज भारतवर्ष में काल गणना भी शुरू हुई थी।

चैत्र मासे जगद्ब्रह्म समग्रे प्रथमेऽनि
शुक्ल पक्षे समग्रे तु सदा सूर्योदये सति- ब्रह्म पुराण

सिन्धी लोग इस नव संवत्सर को ‘चेटी चंड’ यानी चैत्र का चंद्र कहते है। कश्मीर में यह पर्व ‘नौरोज’ के नाम से मनाया जाता है जिसका जिक्र पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपनी आत्मकथा में किया है कि वर्ष प्रतिपदा ‘नौरोज’ यानी ‘नवयूरोज’ अर्थात्‌ नया शुभ प्रभात है जिसमें लड़के-लड़कियां नए कपडे पहनकर उत्सव मनाते हैं। ब्रह्म पुराण में ऐसे संकेत मिलते हैं कि इसी तिथि को ब्रह्माजी ने सृष्टि की रचना की थी। इसका उल्लेख अथर्ववेद तथा शतपथ ब्राह्मण में भी मिलता है। सतयुग का आरंभ भी इसी दिन से हुआ था।

विष्णु भगवान ने वर्ष प्रतिपदा के दिन ही प्रथम जीव अवतार (मत्स्यावतार) लिया था

मान्यता है कि सृष्टि के संचालन का दायित्व इसी दिन देवताओं ने सँभाला था। ‘स्मृत कौस्तुभ’ के अनुसार विष्णु भगवान ने वर्ष प्रतिपदा के दिन ही प्रथम जीव अवतार (मत्स्यावतार) लिया था। युगाब्द (युधिष्ठिवर संवत्) का आरम्भ तथा उनका राज्याभिषेक इसी रोज हुआ था। उज्जयिनी सम्राट- विक्रमादित्य द्वारा विक्रमी संवत् की शुरूआत इसी चैत्र प्रतिपदा को हुआ था। शालिवाहन शक संवत् (भारत सरकार का राष्ट्रीय पंचांग) इसी दिन से शुरु होता था। इसी रोज महर्षि दयानन्द ने आर्य समाज की स्थापना की थी। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ केशव बलिराम हेडगेवार का जन्म भी इसी दिन हुआ था। सिख परंपरा के दूसरे गुरु अंगद देव जी का जन्म दिवस भी चैत्र प्रतिपदा है। इसी दिन से रात की अपेक्षा दिन बड़ा होने लगता है। अलबरुनी लिखता है कि ”जो लोग विक्रमादित्य के संवत का इस्तेमाल करते हैं वे भारत के दक्षिणी एवं पूर्वी भागो मे बसते हैं।”

क्षीरस्वामी का अमरकोश बताता है-‘सर्वर्तुपरिवर्त्तस्तु स्मृतः संवत्सरो बुधैः। भारतीय मनीषा में सभी ऋतुओं के एक पूरे चक्र को संवत्सर कहा जाता है। यानी किसी ऋतु से शुरू कर फिर से उसी ऋतु तक का समय एक संवत्सर होता है। आजादी के बाद नवंबर, 1952 में वैज्ञानिक और औद्योगिक परिषद के द्वारा पंचाग सुधार समिति की स्थापना की गई। इसी समिति को तय करना था कि हमारा ऑफिशियल कलैण्डर क्या हो। समिति ने साल 1955 में सौंपी अपनी रिपोर्ट में विक्रमी संवत को भी स्वीकार करने की सिफारिश की थी, लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के आग्रह पर ग्रेगेरियन कैलेंडर को ही सरकारी कामकाज के लिए उपयुक्त मानकर 22 मार्च, 1957 को इसे राष्ट्रीय कैलेंडर के रूप में स्वीकार किया गया। इसी कलैण्डर से हम आज काम करते है।

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यह जानना ज़रूरी है कि भारतीय मेधा अनेकानेक क्षेत्रों में विश्व की अग्रणी रही है। विश्व गुरू रही है। उसी क्रम में पंचागों की उपलब्धि को भी जानना चाहिए। जैसे ईसा (अंग्रेजी), चीन या अरब का कैलेंडर है उसी तरह राजा विक्रमादित्य के काल में भारतीय वैज्ञानिकों ने इन सबसे पहले ही भारतीय कैलेंडर विकसित किया था। इस कैलेंडर की शुरुआत हिंदू पंचांग के अनुसार चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से मानी जाती है। दरअसल भारतीय कैलेंडर की गणना सूर्य और चंद्रमा के अनुसार होती है। माना जाता है विक्रमादित्य के काल में सबसे पहले भारत से कैलेंडर अथवा पंचाग का चलन शुरू हुआ। 12 माह का एक वर्ष और 7 दिन का एक सप्ताह रखने का प्रचलन विक्रम संवत से ही शुरू हुआ। महीने का हिसाब सूर्य व चंद्रमा की गति पर रखा जाता है। विक्रम कैलेंडर की इस धारणा को फिर यूनानियों के माध्यम से अरब और अंग्रेजों ने अपनाया।

इसी दिन से शक्ति की आराधना के पर्व नवरात्र की शुरुआत होती है। हमारे धर्मशास्त्र के अनुसार नवसंवत्सर पर कलश स्थापना कर नौ दिन के उपवास के साथ शक्ति की आराधना होती है। नवमी के रोज हवन कर भगवती से सुख- शांति और कल्याण की अभ्यर्थना होती है। शारदीय और बासंतिक दो नवरात्र होते है। एक में नव दुर्गा और दूसरे में नव गौरी की पूजा होती है। शक्ति हमारी उर्जा की इकलौती स्रोत है।

नवरात्र में महाशक्ति की पूजा कर श्रीराम ने अपनी खोई हुई शक्ति पाई थी

मान्यता है कि नवरात्र में महाशक्ति की पूजा कर श्रीराम ने अपनी खोई हुई शक्ति पाई थी। जब भगवान राम का आत्मविश्वास भी रावण के सामने डिगने लगा था, वे रावण के बल और शौर्य से चकित हो अपनी जीत के प्रति संशयग्रस्त हो रहे थे तो उन्होने शक्ति पूजा का सहारा लिया। वह पूजा कितनी रोमांचकारी थी इसे महाकवि निराला की राम की शक्तिपूजा से समझा जा सकता है। मार्कण्डेय पुराण के अनुसार, दुर्गा सप्तशती में खुद भगवती ने इस समय की शक्ति-पूजा को महापूजा बताया है। मेरी दादी दोनों नवरात्र में पूरे नौ दिन का उपवास रखती थी।वे रोज गंगा स्नान कर नव देवियों की पूजा अर्चना करती। जब वे अशक्त हुई तो यह परम्परा मेरी माँ ने निभायी। उनके अन्तिम दिनों में यह सिलसिला मैने और वीणा ने आगे बढ़ाई। उसके भी तीस बरस हो गए।

दुनिया में काल को पकड़ उसे बांटने का काम हमारे पुरखों ने ही सबसे पहले किया

दुनिया में काल को पकड़ उसे बांटने का काम हमारे पुरखों ने ही सबसे पहले किया उसे बांटकर दिन, महीना, साल बनाने का काम पहली बार भारत में ही हुआ। जर्मन दार्शनिक मैक्समूलर भी मानते हैं‘ आकाश मण्डल की गति, ज्ञान, काल निर्धारण का काम पहले पहल भारत में हुआ था। ‘ऋग्वेद कहता है ‘ऋषियों ने काल को बारह भागों और तीन सौ साठ अंशों में बांटा है।’ वैज्ञानिक चिंतन के साथ हुए इस बंटवारे को बाद में ग्रेगेरियन कैलेंडर ने भीमाना। आर्यभट्ट,भास्कराचार्य, वराहमिहिर और बह्मगुप्त ने छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी काल की इकाई की पहचान की। बारह महीने का साल और सात रोज का सप्ताह रखने का रिवाज विक्रम सम्वत् से शुरु हुआ। वीर विक्रमादित्य उज्जैयनी का राजा था। शको को जिस रोज उसने देश से खदेड़ा उसी रोज से विक्रम सम्वत् बना। इतिहास देखने से लगता है कि कई विक्रमादित्य हुए। बाद में तो यह पदवी हो गयी।पर लोक जीवन में उसकी व्याप्ति न्यायपाल होने के नाते ज्यादा है। उसकी न्यायप्रियता का असर उस सिंहासन पर भी आ गया था जिस पर वह बैठता था।बाद में तो जो उस सिंहासन पर बैठा गजब का न्यायप्रिय हुआ। लोक में शको से उसके युद्ध की कथा नहीं, बल्कि उसके सिंहासन की गौरवगाथा चलती है।

विक्रम और शक संवत ये दोनो हमारी परंपरा का अदभुत संयोग है विक्रम सम्वत से 6667 ईसवीं पहले सप्तर्षी सम्वत् यहां सबसे पुराना सम्वत माना जाता था।फिर कृष्ण जन्म से कृष्ण कैलेण्डर आया। उसके बाद कलि सम्वत् आया। विक्रम सम्वत् की शुरुआत 57 ईसा पूर्व में हुई। इसके बाद 78 ईसवी में शकसम्वत् शुरु हुआ। भारत सरकार ने शकसम्वत् को ही माना है। विक्रम सम्वत् का प्रारंभ सूर्य के मेष राशि में प्रवेश से माना जाता है। चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से ही चंद्रमा का ‘ट्रांजिशन’ भी शुरू होता है। इसलिए चैत्र प्रतिपदा चन्द्रकला का पहला दिन होता है। मानते हैं इस रोज चन्द्रमा से जीवनदायी रस निकलता है। जो औषधियों और वनस्पतियों के लिए जीवनप्रद होता है।मधु मक्खियां इसी मौसम में सबसे ज्यादा शहद पैदा करती है। वर्ष प्रतिपदा के बाद वनस्पतियों में जीवन भर आता है। चंद्रवर्ष 354 दिन का होता है यह भी चैत्र से शुरु होता हैसौरमास में 365 दिन होते है। दोनों में हर साल दस रोज का अन्तर आ जाता है। ऐसे बढ़े हुए दिनों को ही ‘मलमास’ या‘अधिमास’ कहते हैं। कागज पर लिखे इतिहास से नहीं, बल्कि सदियों से धड़कती परम्परा से ही हमारी दादी वर्ष प्रतिप्रदा से नया वर्ष मानती थीं।

हमारी परम्परा में नया साल खुशियां मनाने का नहीं, प्रकृति से मेल बिठा खुद को पुर्नजीवित करने का पर्व है। तभी तो समाज में नए साल के मौके पर नीम की कोंपले चबाने का ख़ास महत्व था।काली मिर्च के साथ। ताकि साल भर हम संक्रमण या चर्मरोग से मुक्त रहें। इस बड़े देश में हर वक्त हर कहीं एकसा मौसम नहीं रहता। इसलिए अलग-अलग राज्यों में स्थानीय मौसम में आने वाले बदलाव के साथ नया साल आता है। सबके मूल में मौसम का बदलाव ही है। वर्ष प्रतिप्रदा भी अलग-अलग थोड़े अंतराल पर मनायी जाती है। कश्मीर में इसे ‘नवरोज’, तो आन्ध्र और कर्नाटक में ‘उगादि’ महाराष्ट्र में ‘गुड़ी पड़वा’ केरल में ‘विशु’ कहते हैं। सिन्धी इसे झूलेलाल जयंती के रूप में ‘चेटीचण्ड’के तौर पर मनाते आए हैं। महाराज युधिष्ठिर भी इसी दिन गद्दी पर बैठे थे।छत्रपति शिवाजी महाराज ने हिन्दू पदपादशाही की स्थापना भी इसी दिन की। परम्परा से धड़कते पोएला वैशाख कि महिमा लाल विचारधारा से लाल हुए मार्क्सवादी भी मानते हैं।बंगाल की संस्कृति में रचे बसे इस पर्व के रास्ते में कभी मार्क्स ने बाधा नहीं डाली।

भारत में विभिन्न प्रकार के सम्वत् प्रयोग में आते रहे

सैकड़ों सालों तक भारत में विभिन्न प्रकार के सम्वत् प्रयोग में आते रहे। इससे काल निर्णय में अनेक भ्रम हुए। अरबयात्री अल बरुनी ने अपने वृतांत में पांच सम्वतों का जिक्र किया है। श्री हर्ष, विक्रमादित्य, शक, वल्लभ और गुप्तसम्वत्। प्रो. पांडुरंग वामन काणे अपनेी पुस्तक धर्मशास्त्र का इतिहास में लिखते हैं कि ‘विक्रम सम्वत् के बारे में कुछ भी कहना कठिन है। प्रो काणे विक्रमादित्य को परम्परा मानते हैं।वे कहते हैं यह जो विक्रम सम्वत् है, वह ई.पू. 57 से चल रहा है और सबसे वैज्ञानिक है। पश्चिम के कैलेण्डर में यह तय नहीं है कि सूर्यग्रहण और चन्द्रग्रहण कब लगेंगे। पर हमारे कैलेण्डर में तय है कि चन्द्रग्रहण पूर्णिमा को और सूर्यग्रहण अमावस्या को ही लगेगा।

विचारधाराएं जो भी हों, परम्परा, मौसम और प्रकृति के मुताबिक वर्ष प्रतिपदा नए सृजन ,वंदन और संकल्प काउत्सव है। इसमें मौसम बदलता है। शाम सुरमई होती है।रात उदार होती है। जीवन का उत्सव मनाते हुए, कहीं रंग होता है, कहीं उमंग होती है। आईए इस नए साल की परम्परा, नूतनता और इसके पावित्रय का स्वागत करें। प्रकृति को जाने । विरासत पहचाने। चैत्र शुक्ल प्रतिपदा की ये आहट हमारे जीवन में उत्साह और उमंग का पारावार लेकर आए। मंगलकामनाएँ।

साभार- वरिष्ठ पत्रकार और टीवी 9 भारतवर्ष के न्यूज डायरेक्टर हेमंत शर्मा की फेसबुक वॉल से

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