गमछा राष्ट्रीय पोशाक : हेमंत शर्मा

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लेखक चाहे तो वह साधारण से साधारण विषय को भी अपने कौशल से इतना रोचक बना दे कि पाठक उसे पढ़ने को मजबूर हो जाये। अब गमछा को ही लीजिए। इसकी कोई इतनी बड़ी हैसियत नहीं है कि कोई इस पर अपनी लेखनी चलाये। पर लॉकडाउन को सृजन काल मान कर हर दिन कुछ नया लिखने के शौकीन वरिष्‍ठ पत्रकार और टीवी9 भारत वर्ष के न्‍यूज डायरेक्‍टर हेमंत शर्मा इसी गमछे को लेखन का विषय बनाया। फेसबुक के अपने वाल पर परोसे गये इस विषय को उन्‍होंने खास बना दिया कि अगर इसे पढ़ना शुरू कर दिया तो बीच में छोड़ देने का सामर्थ्‍य आप नहीं जुटा पायेंगे। आप भी पढ़िये बड़ा लुत्‍फ आयेगा…

मैं आख़िरकार गमछा प्रतिष्ठा पा गया। वह राष्ट्रीय पोशाक की क़तार में खड़ा हो गया। निर्वस्त्रता की ओर लौटती सभ्यता में गमछा फिर हमारी आबरू बचाने में आगे आया। भला हो नरेन्द्र मोदी जी का जिन्होंने गमछे को राष्ट्रीय वस्त्र का दर्जा दिला दिया। करोना से बचाव के लिए उसे मुंह पर बांधने की सलाह देकर। प्रधानमंत्री का कहना था कि मंत्री से लेकर संत्री तक सब उसे मुँह पर लपेटे घूम रहे है। वरना तौलिए के अभिजात्य ने गमछे को कब का हाशिए पर ला दिया था!

मित्रों, अपना बोधगया बनारस है और गमछा वहां का राष्ट्रीय पोशाक। मैने अपने जीवन का ज्ञान, बोध सब बनारस में प्राप्त किया है। बनारस में गमछा लपेटे हुए गुरु घाट घाट पर मिल जाते हैं। हालांकि ये गुरू कभी भी अपनी हरकतों से आपको घाट घाट का पानी पिला सकते हैं। सो उस लिहाज से काफी सतर्क भी रहना पड़ता है। सो मैं गमछा संस्कृति का आदमी हूं। गमछा बनारस की ’आइडेंटेटी’ है। मगर इस उत्तर आधुनिक युग में तौलिया और गमछा आमने सामने हो गए हैं। गांव के सीधे साधे गमछे को सभ्यता के ब्यूटीपार्लर से डेंटिंग-पेंटिंग करके निकले हुए तौलिए से कड़ी टक्कर झेलनी पड़ रही है।

मेरे घर में गमछे और तौलिए का वर्ग संघर्ष पिछले 30 सालों से चल रहा है। मैं गमछे का और बाकी सब तौलिए के समर्थक हैं। तौलिया पूंजीवादी अभिजात्य है तो गमछा वर्गहीन समाज का प्रतिनिधि। गमछा सर्वहारा का वस्त्र है। उसमें कोई दिखावा नहीं है। यह आधुनिकता के सारे झंझावत झेलता हुआ फैशन के बदलते दौर में अपनी जगह पर अडिग है। गमछा पौरूष को ढांकता और अक्खड़पन को उघाड़ता है। बनारस में आपको ऐसे करोड़पति भी मिल जाएंगे तो एक गमछा पहने और एक ओढे हुए होंगे।

मशहूर तबला वादक गुदई महराज यानी पं सामता प्रसाद मिश्र मेरे मुहल्ले में रहते थे जब वे बनारस में रहते तो गमछा पहने और गमछा ओढ़े हुए ही पूरे शहर में दिखते । वे पायजामा पहने मिलें तो समझिए एयरपोर्ट से या तो आ रहे है या जा रहे है। गमछा मल्टीपरपज है। लपेटिए और नहाइए। किसी की नजर से बचना है तो गले में लपेट लें। रौब गालिब करना है तो कमर में बांध लें। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के विश्व बाजार में तौलिए के मुकाबले गमछा अकेला डटा है। एकदम अंगद के पांव की तरह। आप पहनने के साथ ही इसे ओढ़ भी सकते है। बिछा सकते है। उसमें सामान बांध सकते है। गांव में तो लोग उसमें सत्तू सान कर खा भी लेते है। तुरंत धोकर सुखा सकते है। मेहनत के पसीने को पोंछता है। धूप हुई तो सिर पर साया बनता है। दिन भर पहन सकते है। रात को ओढ़ता सकते हैं।वहीं तौलिया बंधने-बांधने के अपने धर्म पर ही कायम नहीं रह पाता। कभी भी धोखा हो जाता है। आप धोखे से मेरा आशय समझ रहे होंगे।

पिछले 50 वर्षों से मेरा और गमछे का अन्योनाश्रित संबंध रहा है। हम दोनो ने एक दूसरे का साथ कभी नही छोड़ा। हालांकि गमछे के कारण कभी कभी अपमान भी झेलना पड़ा। हुआ यह कि एक बार मैं परिवार के साथ कश्मीर गया। मेरी पत्नी की सहेली के पति वहॉं बिग्रेडियर थे। हमारे आतिथ्य का जिम्मा उन्हीं पर था। ये वह दौर था जब तनख्वाह काफी कम थी।विमान की यात्रा पंहुच से बाहर थी। मोबाइल फ़ोन होते नहीं थे। ट्रेने भी सुपरफास्ट नही हुआ करती थीं। हम लखनऊ से 24 घंटे में जम्मू पहुंचे थे। 24 घंटे ट्रेन में रहने से हालत पतली थी।चेहरे का बाजा बजा हुआ था। कुर्ते की कलफ भी अंतिम सांसे ले रही थी। कंधे पर गमछा था। ट्रेन से उतरते ही हम सीधे फौजी आतिथ्य में थे। फौजी गाड़ियों ने बिग्रेडियर साहब के ठिकाने पहुंचाया। कश्मीर की हालत अच्छी नहीं थी। हम कानवाय में चल रहे थे। ब्रिगेडियर साहब की पत्नी हमारे स्वागत में थीं। वीणा गाड़ी से उतरकर अंदर गईं। मैं गाड़ियों से सामान उतरवाकर उन्हें दूसरी गाड़ी में व्यवस्थित करा रहा था।जिसे हमारे साथ आगे जाना था।

मेरे कंधे का गमछा बीच बीच में चेहरे को तरोताजा करने के काम भी आ रहा था। वीणा की सहेली ने उनके स्वागत में पलक पांवड़े बिछाए। वीणा से पूछा, ‘तुम्हारे पति कहां हैं?’ उन्होंने कहा कि बाहर हैं, आ रहे हैं। फौजी अफसर की आधुनिका पत्नी ने कहा कि बाहर तो कोई नही है। बस एक मजदूरनुमा आदमी गमछा रखे हुए कुछ सामान रखवा रहा है। वीणा चौंक गईं। वे बाहर आईं। देखा कि मैं कंधे पर गमछा लादे हुए अटैचियां व्यवस्थित करवा रहा था। वे पैर पटकती हुई वापिस लौट गईं। लौटकर अपनी सहेली से थोड़ा चिढ़ी हुई आवाज़ में बोलीं, ‘वे मजदूर ही मेरे पति हैं। इनकी गमछा रखने की आदत जो न करा दे..।’ सहेली ने बात संभाली। कहा कि कोई नही, जाने दो। जब खुद से चुनकर शादी की है, तो इनके साथ इनके गमछे को भी झेलो।

Concept

थोड़ी देर बाद जब मैं भीतर आया तो वीणा ने अपनी सहेली से यह कहते हुए मेरा परिचय करवाया, ‘ये हैं मेरे प्रिय पति ‘गमछे वाले’। पता नही इन्हें ज्यादा प्रेम किससे है? मुझसे या गमछे से।’ वीणा की सहेली हंसी दबाते हुए अंग्रेजी में बोलीं, ‘कम ऑन वीणा, इट हैपन्स।’ मैने इस दौरान यह भी नोटिस किया कि उनके भीतर मेरे स्वागत को लेकर गर्मजोशी बेहद कम हो चुकी थी। मैं खुद को बिना बुलाए मेहमान की शक्ल में देख रहा था। गमछा अपना ‘कांड’ कर चुका था। कन्धे पर पड़े गमछे की तरफ मेरी नज़र गई उसका मुँह भी मेरी ही तरह लटका हुआ था ।हमें वहां से कुछ अल्पाहार ग्रहण कर गेस्टहाउस जाना था। सो जल्दी ही इस असहज स्थिति से निजात मिल गई। पर वीणा को लगा कि उनकी बेइज्जती के मूल में गमछा ही है। सो उस दिन से वे मेरे गमछे की शत्रु हो गईं।

इस सबके बावजूद मेरी नजर में गमछे का महात्म्य जरा भी कम नही हुआ। गमछे से राष्ट्रीय गर्व के कई किस्से भी जुड़े हुए हैं। नासा के अंतरिक्ष यात्री एडवर्ड माइकल फिंक असम के प्रसिद्ध सिल्क के ‘गमोसा’ यानि गमछा को अपने साथ अंतरिक्ष में ले गए थे। वे अंतरिक्ष की सैर कर लौटे तो उस गमछे को तत्कालीन मुख्यमंत्री तरुण गोगोई ने गुवाहटी के राष्ट्रीय संग्रहालय में रखवाया है। गमछे से मेरी भी कुछ ऐसी ही यादें जुड़ी हुई हैं। मैंने जिस गमछे को पहनकर शून्य से कम तापमान वाली मानसरोवर झील में स्नान किया था, वह मेरे पूजाघर की शोभा है।

आप तौलिए और गमछे के बीच वर्ग और व्यवस्था दोनो का अंतर पाएंगे। तौलिए के चोर भी होते हैं पर गमछा चोरी नहीं होता। एक सर्वेक्षण के मुताबिक पांच में से एक अमरीकी कभी न कभी होटल से तौलिया जरुर चुराता है। अमरीकी होटल एसोसिएशन के अनुसार तौलियों की चोरी से वहां होटल उद्योग को 10 करोड़ डॉलर का सालाना नुकसान होता है। अमरीका के कुछ होटल हर साल 28 अगस्त को ‘तौलिया छूट दिवस’ भी मनाते हैं।

तौलिए का प्रयोग अक्सर ही विवादास्पद स्थितियों में होता है। कहीं मैच फिक्सिंग के लिए तौलिया लटकाकर सिग्नल देते हैं तो कहीं फिल्म ‘हिट’ कराने के लिए तौलिया ही गिरा देते हैं। गाने को सुपरहिट बनाने के लिए तौलिया डांस होता है। कई बार ऑपरेशन के बाद मरीज इसलिए परलोक सिधार जाता है क्योंकि उसके पेट में तौलिया छूट जाता है। मैं सोचने लगा कि आखिर तौलिया ही क्यों हमेशा सुर्खियाँ बटोरता है। एक तौलिए ने फिल्म स्टार रणवीर कपूर को शोहरत में कहां से कहां पहुंचा दिया। फिर उसी तौलिए ने क्रिकेटर श्रीसंत को जेल का रास्ता दिखा दिया। तौलिए ने ही क्रिकेट में ‘स्पाट फिक्सिंग’ का पर्दाफाश कराया। अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन दफ्तर में छूटे हुए कमबख्त तौलिए की वजह से ही पकड़े गए और उन पर हिंदी फिल्मों के शक्ति कपूर होने का ठप्पा लगा। उनकी प्रेमिका मोनिका लेविंस्की ने तौलिए को ही सबूत के तौर पर पेश किया था। यानि एक तौलिया हज़ार फसाने। प्रसिद्ध साहित्यकार उपेंद्र नाथ अश्क ने “तौलिए” नाम से एक एकांकी की रचना भी कर दी। इसे जब आप पढ़ेंगे तो जानेंगे कि तौलिए के चलते घरों में किस तरह का कोहराम मचता है।

ऋषि कपूर का हाल ही में निधन हुआ है। ये भारतीय सिनेमा की अपूर्णीय क्षति है। वे रणवीर कपूर के पिता थे। जिन्होंने बॉबी फिल्म देखी है, उन्हें याद होगा कि ऋषि कपूर भी इस फिल्म में अपना टॉवेल गिराकर ही सुर्खियों में आए थे। फिल्म सुपरहिट रही। यही फार्मूला बेटे रणबीर ने आजमाया। तब ‘सांवरिया’ ने कामयाबी के रिकार्ड तोड़े। सलमान खान तो फूहड़ तौलिया डांस के प्रवर्तक हैं। एक मोहतरमा है पूनम पांडे। मॉडलिंग की दुनिया में बदनाम। हमेशा निर्वस्त्र होने पर अमादा।दो साल पहले एलान किया कि भारत विश्वकप जीता तो वे निर्वस्त्र होगी। बाद में उन्होंने तौलिया लपेटकर उत्तेजक फोटो की पूरी श्रृंखला जारी की। तौलिया फिर बदनाम हुआ।

तौलिया अंग्रेजी ‘टॉवेल’ का टूटा फूटा रूप है। तौलिया तुर्की में ईजाद हुआ था। वहाँ के शाह हम्माम में टॉवेल का इस्तेमाल करते थे। आज भी ‘टर्किश टॉवेल’ मशहूर है। तब यह राजसी वस्त्र था। ‘टॉवेल’ जर्मनी मूल का शब्द है। इसका फ्रेंच रूप ‘तोएल्ले’ है। स्पेनिश में इसे ‘तोल्ला’ इतालवी में ‘तोवेग्लिया’ और पुर्तगाली में इसे ‘तोआला’ कहते हैं। पुर्तगालियों के साथ ही 14 वीं, पंद्रहवी शती में तौलिया भारत आया। हालाकिं हमारे समाज में अंगवस्त्र के तौर पर वह पहले से मौजूद था। यही अंगवस्त्र बिगड़कर अंगोछा और गमछा तक चला गया। दक्षिण की चारों भाषाओं में अभी भी यह अंगवस्त्र ही है। मराठी में अंगोछा को अंगूचे, साफी या पंचा कहा जाता है। गुजराती में अंगूछो कहते हैं।इसका सिंधी रूप अगोचा है।

तौलिए को लेकर एक पुराना किस्सा याद आ गया। विश्वविद्यालय में पढ़ते वक्त मेरे एक वामपंथी गुरु थे। उनकी तौलिया गाथा अद्भुत है। दादा बी.एच.यू में पढ़ाते थे। छात्र,अध्यापक ,कर्मचारी राजनीति के शिखर पुरूष । कार्ल मॉर्क्स की तरह लम्बी दाढ़ी। तब वामपंथी राजनीति में सोवियत राष्ट्रपति मिखाइल गोर्वाचोव ने दो शब्द ‘पेरोस्त्रोइका’ और ‘ग्सालनोस्त’ दिए थे। ‘पेरोस्त्रोइका’ यानी अर्थव्यस्था में उदारवादी पुर्नगठन और ‘ ग्सालनोस्त’का मतलब खुलापन या पारदर्शिता था। रुस के वामपंथी समाज में इन्हीं दो शब्दों से विघटन की नींव पड़ी। उस वक्त ये दोनो ही शब्द हमें समझ नहीं पड़ते थे। हमने दादा से इन सुधारवादी शब्दों का मतलब पूछा। दादा ने हमें घर बुलाया। हम उनके घर पहुंचे तो वे एक मोटी रुसी तौलिया पहनकर नहाने जा रहे थे। दादा ने कहा पहले मैं तुम्हें ‘पेरोस्त्रोइका’ और ‘ग्सालनोस्त’ पर कुछ पढ़ने को देता हूं। पढ़ लो फिर बात करेगें।

हमसे बात करते करते दादा अपने अध्ययन कक्ष की उपरी सेल्फ पर कोई किताब भी ढ़ूढ़ रहे थे। तभी एक दारुण हादसा घटा। दादा के दोनों हाथ किताब पकड़ने को उठे। पेट पर पड़े तनाव से उनकी तौलिया खुल कर नीचे गिर गयी। अब गुरुदेव के शरीर पर न कोई वस्त्र, न उपवस्त्र, न अधोवस्त्र।दादा की दाढ़ी का नीचे तक विस्तार दिखा। रुसी तौलिए ने दादा को धोखा दे दिया। उधर दादा इस सबसे बेपरवाह होकर बोले जा रहे थे कि ‘पेरोस्त्रोइका’ और ‘ग्सालनोस्त’ को आने से अब कोई रोक नहीं सकता। मैंने कहा, ‘दादा आप ठीक कह रहे है। वह रुक नहीं सकता। वह आ गया है बल्कि आ चुका है।’ दादा ने पूछा ‘कब?’ मैंने कहा, ‘अभी-अभी’। दादा ने अचानक नीचे की ओर देखा। रूसी क्रांति का प्रतीक उनका तौलिया जमीन पर लेटा हुआ था। उन्होंने पहली नजर उस तौलिए पर फेंकी और दूसरी मेरे मुंह पर। मैने दादा से कहा कि फिर आता हूं किसी दिन और विदा ली। इस हादसे के बाद मैंने कभी किसी से इन दोनों शब्दों और सोवियत रुस के विघटन को समझने की कोशिश नहीं की। तौलिए की कलाकारी मैं जरुर समझ चुका था। मुझे आज भी लगता है कि अगर दादा ने उस रोज़ अपनी जमापूंजी को रूसी तौलिए की जगह बनारसी गमछे से बांधा होता तो न वो गिरता और न ही ग्लासनोस्त (खुलापन) नजर आता। उस रोज़ से मेरी नज़र में गमछे का सम्मान और भी बढ़ गया।

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