9 साल की उम्र में बनी पहली महिला हॉकर, राष्ट्रपति ने किया सम्मानित

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एक कहावत है कि एक लड़की दुनिया में वो सारे काम बखूबी कर सकती है जिसे लड़के अंजाम देते हैं, और जरूरत पड़ने पर वो लड़कों को मात भी दे सकती है। आज हम आपको राजस्थान की जयपुर में रहने वाली एक ऐसी ही लड़की अरीना खान उर्फ पारो की जिजीविषा व अदम्य साहस की कहानी बयां करने जा रहे हैं।

देश की पहली महिला हॉकर

जब गुलाबी नगरी जयपुर सुबह की नींद में डूबा रहता था तब नौ साल की एक लड़की सर्दी, गर्मी या फिर बरसात के मौसम में सुबह-सुबह चार बजे अपने साइकिल के बड़े-बडे पैडल मार गुलाब बाग सेंटर पहुंच जाती थी। अरीना खान उर्फ पारो नाम की ये लड़की यहां से अखबार इकट्ठा करती और फिर निकल जाती उनको बांटने के लिए। पिछले 15 सालों से ये सिलसिला अब तक जारी है। पारो महज नौ साल की उम्र से जयपुर शहर के अलग-अलग इलाकों में अखबार बांटने का काम कर रही हैं। यह काम उन्हें देश की पहली महिला हॉकर भी बनाता है।

मजबूरी ने बनाया हॉकर

देश की पहली महिला हॉकर पारो की सात बहनें और दो भाई हैं। इतने बड़े परिवार की जीविका चलाने के लिए उनके पिता (सलीम खान) एक अखबार बांटते थे, लेकिन टायफाइड की जकड़ में आने की वजह से वे कमजोर होते गए। शुरुआती दौर में तो पारो सिर्फ उनकी मदद के लिए उनके साथ आती-जाती थी। कभी साइकिल को धक्का लगा देतीं तो कभी अखबार बांटने में पिताजी की मदद कर दिया करतीं। अभी घर की गाड़ी खींच ही रही थी कि अचानक एक दिन अरीना और उनके परिवार के ऊपर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा। उनके पिता सलीम खान का बीमारी के कारण निधन हो गया। अब सारे परिवार की जिम्मेदारियां पारो पर ही आ गईं। इसके बाद वह अपने भाई के साथ सुबह पांच बजे से आठ बजे तक अखबार बांटने का काम करने लगीं।

मुसीबतों से खुद ही लड़ीं

कहते हैं कि मुसीबतें आती हैं तो छप्पर फाड़ कर आती हैं। पारो को भी मुसीबतों ने कुछ ऐसे ही धर दबोचा। पिता की मौत के बाद उन्होंने लोगों के घरों में अखबार बांटना शुरू किया। मुसीबत के वक्त कम ही लोग मदद करते हैं। अरीना की मदद भी कुछ चुनिंदा लोगों ने की जो उनके पिता को जानते थे। इसलिए जब अरीना सुबह अखबार लेने जाती थीं। तब उनको लाइन नहीं लगानी पड़ती थीं। उन्हें सबसे पहले अखबार मिल जाते थे।

…जब स्कूल से कट गया नाम

पेपर बांटने के बाद ही पारो स्कूल जाती थी। ऐसे में अकसर वो स्कूल देर से पहुंच पाती और एक दो क्लास पूरी हो जाती थी। इस कारण रोज उनको प्रिसिंपल से डांट खानी पड़ती थी। तब अरीना 5वीं क्लास में पढ़ती थीं। एक दो साल इसी तरह निकल जाने के बाद एक दिन स्कूल वालों ने उनका नाम काट दिया। जिसके बाद अरीना एक साल तक अपने लिए नया स्कूल ढूंढती रहीं। क्योंकि उन्हें एक ऐसे स्कूल की तलाश थी जो उनको देर से आने की इजाजत दे। तब रहमानी मॉडल सीनियर सेंकडरी स्कूल ने उन्हें अपने यहां एडमिशन दे दिया। इस तरह पेपर बांटने के बाद एक बजे तक वो स्कूल में रहतीं थीं।

मुसीबतों में भी नहीं छोड़ी पढ़ाई

एक ओर पारो ने अखबार बांटने का काम जारी रखा तो दूसरी ओर अपनी पढ़ाई पर भी आंच नहीं आने दी। संघर्षों का सामना करते हुए उन्होंने 12वीं की पढ़ाई खत्म की और उसके बाद अपनी ग्रेजुएशन की पढाई ‘महारानी कॉलेज’ से पूरी की है।

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धीरे-धीरे उन्होंने कंप्यूटर चलाना सीखा और आज 23 साल की पारो जहां पहले सुबह अखबार बांटती हैं वहीं उसके बाद एक प्राइवेट कंपनी में नौकरी करती हैं। इतना ही नहीं वो गरीब बच्चों को पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करती हैं, उनको पढ़ाती हैं और कई संगठनों के साथ मिलकर उनके लिए काम करती हैं।

राष्ट्रपति भी कर चुके हैं सम्मानित

अपने संघर्ष और जद्दोजहद के दम पर आज वह अपने समाज व शहर में एक सम्मानित नाम हैं। लोग आज उनके साथ सेल्फी व तस्वीरें खिंचवाने के लिए तत्पर रहते हैं।

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उन्हें कई राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय सम्मान मिले हैं। साथ ही उन्हें राष्ट्रपति भी सम्मानित कर चुके हैं। अरीना कहती हैं कि उनकी मजबूरी ही आज उनकी व्यापक पहचान का हिस्सा बन गई है। पारो को जब जानकारी हुई की राष्ट्रपति उन्हें पुरस्कार देने वाले हैं तब उन्हें इतनी खुशी मिली कि उनके पैर ही जमीन पर नहीं पड़ रहे थे।

 

 

 

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