Bollywood ने दिखाई है उम्मीद की किरण

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इधर कुछ दिनों से अभिनेता कार्तिक आर्यन के विडियो संदेश वायरल हो रहे हैं। इनमें वह कोरोना वायरस के प्रति लोगों की लापरवाही पर खीझ दिखा रहे हैं। सोशल मीडिया पर संदेशों की लंबी शृंखला है, जिसमें लोगों को बताया जा रहा है कि वे क्या करें क्या न करें। खास जोर इस पर है कि जहां तक हो सके, सबको अपने घर में ही रहना चाहिए। सुविधा संपन्न लोगों के लिए एकांत एक लग्जरी है, लेकिन उनका क्या जो दिन के हिसाब से कमाते हैं और अपने परिवार के लिए रोजी-रोटी जुटाते हैं।

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साधनहीनों की बात

महात्मा गांधी हमेशा कतार में खड़े अंतिम आदमी की बात करते थे। लेकिन आज की सरकारें, धनसंपन्न लोग और सेलिब्रिटीज ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ की चादर झाड़ कर निश्चिंत हो जा रही हैं। कोई भी यह नहीं सोच रहा कि इन सुझावों पर अमल करना उन लोगों के लिए कितना मुश्किल साबित होने जा रहा है जिनके पास साधन नहीं हैं। इन मुश्किलों को आसान बनाने के उपायों पर कोई बातचीत फिलहाल सार्वजनिक मंचों पर नहीं दिख रही। मगर ऐसा नहीं है कि कहीं इस दिशा में कोई कोशिश ही नहीं हो रही है।

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जैसी उम्मीद की किरण केरल की सरकार से दिखती है, जिसने कोरोना वायरस से निपटने के लिए बीस हजार करोड़ रुपये के पैकेज का एलान किया है, कुछ वैसी ही रोशनी बॉलिवुड की ओर से भी तब दिखाई दी, जब चर्चित फिल्म निर्देशक सुधीर मिश्रा ने बॉलिवुड के कुछ संवेदनशील डायरेक्टरों से अपील की कि वे उन लोगों की मदद के लिए आगे आएं, जिनकी कमाई का जरिया रोज का श्रम है। विक्रमादित्य मोटवानी और अनुराग कश्यप से लेकर हंसल मेहता, राहुल ढोलकिया, निखिल आडवाणी और अनुभव सिन्हा जैसे निर्देशक इस अपील के बाद सक्रिय हुए।

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मुंबई फिल्म इंडस्ट्री में लाखों की तादाद में डेली वेज वाले श्रमिक हैं। इनके लिए फंड जुटाना और एक-एक तक मदद पहुंचाना आसान नहीं। इसके लिए सारी फिल्म निर्माता कंपनियों का साथ होना जरूरी है, ताकि सूची बनाने में आसानी हो। प्रोड्यूसर्स असोसिएशन इसके लिए आगे आया है। बड़ी बात यह कि ये लोग गंभीरता से इस काम में लगे हुए हैं। सुधीर मिश्रा ने यह अपील ट्विटर के जरिये 15 मार्च को की थी। उसके बाद ही यह पहल शुरू हुई और फिर आगे बढ़ती गई। मेरे पास यह सूचना नहीं है कि कितने लोगों तक मदद पहुंची, लेकिन पहुंचनी शुरू हो गई है, इस बात की पक्की सूचना है।

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आपदा की स्थिति में सिनेमा से जुड़े लोगों की यह पहल इसलिए भी जरूरी थी क्योंकि जिन्हें देश हीरो मानता है, उनके नागरिक दायित्व भी होते हैं। इसी दायित्व के तहत वे सरकारों के खिलाफ बोलते हैं और पार्टियों के स्थायी वोटर्स की नाराजगी मोल लेते हैं। इससे देशवासियों के एक हिस्से में ऐसी धारणा बनती है कि फिल्मी दुनिया की बड़ी-बड़ी हस्तियां महज पब्लिसिटी के लिए सरकार विरोधी बयान जारी करती हैं। ऐसे में आज के संकटपूर्ण हालात में की गई यह गंभीर और सामयिक पहल भारत में सिनेमा से जुड़े लोगों की विश्वसनीयता बढ़ाएगी।

मुंबई फिल्म इंडस्ट्री ने महामारी के माहौल में अपने सबसे कमजोर हिस्से की ओर बढ़ाया मदद का हाथ

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साल 2011 में एक अमेरिकी फिल्म ‘कंटेजिएन’ (संक्रमण) आई थी, जिसकी कहानी कुछ उसी तरह के हालात में बनती है, जैसे आज इटली, ईरान और खुद भारत में भी दिखाई पड़ रहे हैं। फिल्म में अपनों को बचाने की कवायद करते हुए लोग हैं और सरकारी प्रयासों के भीतर एक कांस्पिरेसी थियरी का पीछा करता हुआ स्वतंत्र पत्रकार है। मानवता के लिए अपनी निजी सुरक्षा से समझौता करने वाले बड़े लोगों की कोई कथा इस फिल्म में शामिल नहीं है। अलबत्ता छोटे लोगों की एक ऐसी कथा जरूर है, जिसमें एक लेडी डॉक्टर को संक्रमण हो जाता है और वह मरीजों की भीड़ में शामिल हो जाती है।

प्रभावित होने वाले डेली वेज श्रमिकों के लिए निर्माता-निर्देशक जिस तरह से एकजुट हुए हैं, ऐसा पहले कभी नहीं देखा गया

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चीन के वूहान शहर के एक अस्पताल में जब कोरोना वायरस से संक्रमित लोगों की जान बचाने में लगे डॉ फंग यिनह्ना की मौत हो गई तो ‘कंटेजिएन’ की उसी युवा डॉक्टर की याद आ गई। हमारे यहां भी हर किसी को एकांत में रहने के लिए कहा जा रहा है, लेकिन डॉक्टर्स की सोशल मीडिया प्रोफाइल पर जाइए तो आपको उनकी तस्वीर के साथ एक टैग लाइन मिलेगी, ‘आइ कैन नॉट स्टे होम, आइ एम अ हेल्थकेयर वर्कर।’ (मैं घर में नहीं रह सकता, मैं एक स्वास्थ्यकर्मी हूं।)

[bs-quote quote=”(ये लेखक के अपने विचार है, यह लेख NBT में प्रकाशित है।)” style=”style-13″ align=”left” author_name=”अविनाश दास” author_avatar=”https://journalistcafe.com/wp-content/uploads/2020/03/Avinash-Das.jpg”][/bs-quote]

बॉलिवुड में लोग जरूर घरों में बैठ गए हैं और सारा कामकाज ठप हो गया है, लेकिन इससे प्रभावित होने वाले मजदूरों के लिए निर्माता-निर्देशकों की फौज जिस तरह से एकजुट हुई है, ऐसा पहले कभी नहीं देखा गया। यहां चमकते हुए सितारों की लौ जब मद्धिम होने लगती है, तो लोग उन्हें भी भूल जाते हैं। ओपी नैयर जैसे बड़े संगीतकार को अपने आखिरी वक्त में अकेलेपन का दुख झेलना पड़ा। इंडस्ट्री की बेवफाई से वे इस कदर खफा थे कि उन्होंने कह दिया कि उनकी अंतिम यात्रा में कोई शरीक न हो। मुंबई से दूर ठाणे की एक बहुत छोटी सी जगह नालासोपारा में उनके आखिरी दिन बीते। ऐसे किस्सों की लंबी फेहरिस्त है।

 

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एक फेहरिस्त ऐसे किस्सों की भी है जिसमें लोगों ने लोगों की मदद की है। लेकिन मदद के दौरान मजदूरों को भी पूछा गया हो, ऐसे किस्से बॉलिवुड में नहीं सुनने को मिलते। एक्सट्राज और सहायक टेक्नीशंस के बारे में कभी कोई बात नहीं होती। आज जब फिल्म इंडस्ट्री में लोग अपनी नागरिकता को लेकर ज्यादा संवेदनशील हो रहे हैं, वायरस की वजह से पैदा हुई शट डाउन की स्थिति में सबसे कमजोर लोगों के हाथ थामने की पहल हुई है तो यह कोई छोटी बात नहीं है। हम जो करते हैं, उसका असर हमारी रचना, हमारे सृजन पर भी पड़ता है। उम्मीद करें कि आने वाला वक्त मुंबई फिल्म इंडस्ट्री के लिए और ज्यादा मानवीय होगा।

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