महामारियों का इतिहास और भूगोल

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दुनिया ने और भारत ने अभी तक के इतिहास में अनेक महामारियों का सामना किया है। प्लेग, हैजा, चेचक और स्पैनिश फ्लू से लेकर कोविड-19 तक ये महामारियां हर कुछ दशक बाद आई हैं और इन्होंने एक बड़ी आबादी को खासा परेशान किया है। अगर इन महामारियों का इतिहास देखें और इनके प्रसार के रूट का अध्ययन करें, तो स्पष्ट होता है कि इनमें से ज्यादातर महामारियां सैनिकों, उद्यमियों, व्यापारियों, प्रवासियों और पर्यटकों के माध्यम से विश्व में एक से दूसरे क्षेत्र में फैलीं।

इंडियन प्लेग महामारी, जो ब्रिटिशकालीन बंगाल में 1817 के आस-पास भयानक रूप से फैली था, ब्रिटिश सेना की टुकड़ियों के माध्यम से बंगाल के एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में पहंुची। फिर ब्रिटिश व्यापारियों और सैनिकों के जरिए वह इंग्लैंड पहुंची। इसे ‘भारतीय प्लेग’ का नाम दिया गया, स्थानीय भारतीय जनता इसके प्रथम चरण में मात्र ‘पैसिव रेसिपिएंट’ थी। धीरे-धीरे वह इसकी संवाहक में तब्दील होती गई। यानी, पहले इस महारोग ने भारतीय जनता को अपना शिकार बनाया और फिर इसी जनता ने आगे जाकर इसे विस्तार दिया।

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आज जिस ‘क्वारंटीन’ शब्द का बहुत ज्यादा इस्तेमाल हो रहा है, उसके बारे में एक व्याख्या यह है कि महामारियों के दिनों में नाविक अपने को बचाने के लिए जहाज खोलने और यात्रा के लिए प्रस्थान से पहले 40 दिनों तक एकांतवास करते थे। इससे भी जाहिर होता है कि महामारियों और गतिशील समुदायों, जैसे नाविक, व्यापारी, सैनिक, मिशनरी, प्रवासी और पर्यटक का आपस में गहरा संबंध है। ये गतिशील समुदाय अपने साथ धन, संस्कृति और बीमारी, तीनों ले आते हैं, इन तीनों को नई जमीन और नया विस्तार देते हैं।

महामारियों के इतिहास पर हुए शोध बताते हैं कि ईसा पूर्व दूसरी सदी का ‘एंटोनाइन प्लेग’ भी पश्चिम एशिया से युद्ध करके लौटे सैनिकों के जरिए रोम में फैला था। एक और अत्यंत भयानक महामारी, जिसे ‘जस्टिनियन प्लेग’ का नाम दिया गया था, वह चीन से शुरू होकर मालवाहक जहाजों के सहारे अफ्रीका और मिस्र के जरिए वर्ष 541 में कॉस्टेंटिनोपल में पहुंची थी। 14वीं सदी का भयानक प्लेग, जिसे ब्लैक डेथ का नाम दिया गया था, वह भी यूरोप में 1340 में ‘सुदूर पूर्व’ के देशों में पैदा होकर जहाजों और उन पर काम करने वाले लोगों व व्यापारी प्रवासियों के माध्यम से फैला था। उन दिनों जहाज, उन पर लदे सामान, यात्री और जहाज पर काम करने वाले कर्मचारियों को 40 दिनों तक ‘क्वारंटीन’ में रखा जाता था। इतिहासकार यह भी मानते हैं कि सिफलिस जैसी बीमारी 15वीं शताब्दी में स्पेनिश दुनिया के खोजी यात्रियों के जरिए यूरोप में पहुंची थी।

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दुनिया में जब उपनिवेशों की खोज और उन पर साम्राज्य स्थापित करने की लड़ाई शुरू हुई, जब व्यापार की गतिविधियां उपनिवेशवाद के प्रसार के साथ तेज हुईं, जब उपनिवेशवाद के कारण प्रवसन और विस्थापन की प्रक्रिया तेज हुई, तब पूरी दुनिया में महामारियों की लहर फैली। जब उपनिवेशवाद का भारत और एशिया के देशों में प्रसार बढ़ा, तो आयरिश प्रवासियों के साथ 18वीं शताब्दी का प्लेग दुनिया भर में फैला।

यानी युद्ध, व्यापार, प्रवसन और पश्चिमी देशों द्वारा दुनिया की खोज के अभियानों के साथ पूरी मानवता महामारियों की चपेट में आती गई। महामारियां यात्रा करती हैं और यात्रा के माध्यम से पहुंचती व फैलती हैं। लेकिन कई बार हम इसका दोष स्थानीय लोगों पर डालने लगते हैं। 1817 का ‘इंडियन प्लेग’ फैला था सैनिकों और औपनिवेशिक गतिविधियों से जुडे़ आयरिश लोगों के माध्यम से, लेकिन उसके लिए स्थानीय भारतीय जनता को दोषी बताया जाने लगा था। यूरोप और अमेरिकी भूखंड में तो कई बार महामारियों के प्रसार के लिए स्थानीय यहूदी समुदायों को जिम्मेदार बता दंडित भी किया जा चुका है।

गतिशील समुदाय अपने साथ धन, संस्कृति व बीमारी, तीनों ले आते हैं और इन तीनों को नई जमीन, नया विस्तार देते हैं।

महामारियों के प्रसार की वाहक गरीब व आम जनता नहीं होती, ये प्राय: धनी, आगे बढे़ हुए लोग, धनाकांक्षी और आगे बढ़ने की चाह में लगे लोग होते हैं। ये जहां भी जाते हैं, वहां के स्थानीय समुदाय और आम जनता, खासकर गरीब, महामारियों के ‘पैसिव रेसिपिएंट’ होते हैं, जो बाद में धीरे-धीरे उसके वाहक में तब्दील हो जाते हैं। प्रवासियों में भी जो गरीब और श्रमिक लोग होते हैं, जिन्हें आमतौर पर स्थानीय प्रभावी समुदाय व मध्य वर्ग ‘गंदगी से परिपूर्ण समूह’ मानता है, अक्सर पर्यटकों, व्यापारियों, नौकरीशुदा और अभिजात्य समुदाय द्वारा अपने साथ लाई गई महामारियों को ग्रहण कर उन्हें फैलाने का जरिया बनते हैं। ये समूह चूंकि स्लम, गरीब बस्तियों, सड़कों पर रहने और अपने रहन-सहन के कारण मध्य वर्ग और समर्थ सामाजिक समूहों से अलग दिखते हैं, इसलिए उन्हें प्राय: किसी महामारी का दोषी करार दे दिया जाता है। कोरोना वायरस या कोविड-19 के प्रसार के रूप में हमारे सामने ताजा उदाहरण है। भारत में यह यहां के संपन्न समूह, व्यापारी वर्ग, विदेश में नौकरी करने वालों, प्रवासियों, फ्रीक्वेंट फ्लायर्स, गायकों वगैरह के माध्यम से आया है। फिर यहां के टैक्सी ड्राइवर, मजदूरों, दुकानदारों और मध्य वर्ग जैसे समूहों तक पहुंच रहा है।

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[bs-quote quote=”(यह लेखक के अपने विचार हैं यह लेख हिंदुस्तान अखबार में प्रकाशित है।)” style=”style-13″ align=”left” author_name=”बद्री नारायण” author_job=”निदेशक, जीबी पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान” author_avatar=”https://journalistcafe.com/wp-content/uploads/2020/03/BADRI-NARAYAN.jpg”][/bs-quote]

महामारियों के प्रसार का इतिहास हमें बताता है कि जिनमें प्रवसन करने की शक्ति होती है, जो विदेश जाने और घूमने की स्थिति में होते हैं, वे किसी महामारी के प्रथम वाहक होते हैं। प्रवसन जहां हमारे सकल घरेलू उत्पाद में डॉलर जोड़ता है, वहीं यह महामारियां भी जोड़ता है। लेकिन अंत में यह परेशान उन्हें करता है, जिन्होंने कभी डॉलर का सुख तो नहीं भोगा, लेकिन महामारियों के शिकार वे जरूर बन गए।

 

 

 

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